SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 368
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३३४ ज्ञानी हि तावद् ध्रुवत्वात् स्वभावभावस्य टङ्कोत्कीर्णंकज्ञायकभावो नित्यो भवति, यौ तु वेद्यवेदकभावौ तौ तूत्पन्नप्रध्वंसित्वाद्विभावभावानां क्षणिकौ भवतः। तत्र यो भाव: कांक्षमाणं वेद्यभावं वेदयते स यावद्भवति तावत्कांक्षमाणो वेद्यो भावो विनश्यति; तस्मिन् विनष्टे वेदको भावः किं वेदयते? यदि कांक्षमाणवेद्यभावपृष्ठभाविनमन्यं भावं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्व स विनश्यति; कस्तं वेदयते ? यदि वेदकभावपृष्ठभावी भावोऽन्यस्तं वेदयते, तदा तद्भवनात्पूर्व स विनश्यति; किं स वेदयते ? इति कांक्षमाणभाववेदनानवस्था। तां च विजानन् ज्ञानी न किञ्चिदेव कांक्षति। टीका:-ज्ञानी तो, स्वभावभावका ध्रुवत्व होनेसे, टंकोत्कीर्ण एक ज्ञायकभावस्वरूप नित्य है; और जो वेध-वेदक (दो) भाव हैं वे, विभावभावोंका उत्पन्न-विनाशत्व होनेसे, क्षणिक हैं। वहाँ, जो भाव कांक्षमाण ( अर्थात् वांछा करने वाला) ऐसे वेद्यभावका वेदन करता है अर्थात् वेद्यभावका अनुभव करनेवाला है वह ( वेदकभाव) जबतक उत्पन्न होता है तबतक कांक्षमाण (अर्थात् वांछा करनेवाला) वेद्यभाव विनष्ट हो जाता है; उसके विनष्ट हो जाने पर, वेदकभाव किसका वेदन करेगा? यदि यह कहा जाये कि कांक्षमाण वेद्यभावके बाद उत्पन्न होनेवाले अन्य वेद्यभावका वेदन करता है, तो ( वहाँ ऐसा है कि) उस अन्य वेद्यभावके उत्पन्न होनेसे पूर्व ही वह वेदकभाव नष्ट हो जाता है; तब फिर उस दूसरे वेद्यभावका कौन वेदन करेगा? यदि यह कहा जाये कि वेदकभावके बाद उत्पन्न होनेवाला दूसरा वेदकभाव उसका वेदन करता है, तो ( वहाँ ऐसा है कि) उस दूसरे वेदकभावके उत्पन्न होनेसे पूर्व ही वह वेद्यभाव विनष्ट हो जाता है; तब फिर वह दूसरा वेदकभाव किसका वेदन करेगा ? इसप्रकार कांक्षमाण भावके वेदनकी अनवस्था है, उस अनवस्थाको जानता हुआ ज्ञानी कुछ भी नहीं चाहता। भावार्थ:-वेदकभाव और वेद्यभावमें काल भेद है। जब वेदकभाव होता है तब वेद्यभाव नहीं होता और जब वेद्यभाव होता है तब वेदकभाव नहीं होता। जब वेदकभाव आता है तब वेद्यभाव विनष्ट हो चुकता है; तब फिर वेदकभाव किसका वेदन करेगा? और जब वेद्यभाव आता है तब वेदकभाव विनष्ट हो चकता है; तब फिर वेदकभाव के बिना वेद्यका कौन वेदन करेगा? ऐसी अव्यवस्थाको जानकर ज्ञानी स्वयं ज्ञाता ही रहता है, वांछा नहीं करता। यहाँ प्रश्न होता है कि-आत्मा तो नित्य है इसलिये वह दोनों भावोंका वेदन कर सकता है; तब फिर ज्ञानी वांछा क्यों न करे ? समाधान:-वेद्य-वेदक भाव विभावभाव है, स्वभावभाव नहीं, इसलिये वे विनाशीक है; अतः वांछा करनेवाला वेद्यभाव जबतक आता है तबतक वेदकभाव( भोगनेवाला भाव) नष्ट हो जाता है, * वेद्य = वेदनमें आने योग्य, वेदक = वेदनेवाला, अनुभव करनेवाला। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy