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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३३० अपरिग्गहो अणिच्छो भणिदो णाणी य णेच्छदे पाणं। अपरिग्गहो दु पाणस्स जाणगो तेण सो होदि।। २१३ ।। अपरिग्रहोऽनिच्छो भणितो ज्ञानी च नेच्छति पानम। अपरिग्रहस्तु पानस्य ज्ञायकस्तेन स भवति।। २१३ ।। इच्छा परिग्रहः। तस्य परिग्रहो नास्ति यस्येच्छा नास्ति। इच्छा त्वज्ञानमयो भावः, अज्ञानमयो भावस्तु ज्ञानिनो नास्ति, ज्ञानिनो ज्ञानमय एव भावोऽस्ति। ततो ज्ञानी अज्ञानमयस्य भावस्य इच्छाया अभावात् पानं नेच्छति। तेन ज्ञानिनः पानपरिग्रहो नास्ति। ज्ञानमयस्यैकस्य ज्ञायकभावस्य भावात् केवलं पानकस्य ज्ञायक एवायं स्यात्। एमादिए दु विविहे सव्वे भावे य णेच्छदे णाणी। जाणगभावो णियदो णीरालंबो दु सव्वत्थ।। २१४ ।। अब, यह कहते हैं कि ज्ञानीके पीनी इत्यादिके पीने का भी परिग्रह नहीं है: अनिच्छक कहा अपरिग्रही नहिं, नहीं पान इच्छा ज्ञानीके । इससे न परिग्रही पानका वो, पानका ज्ञायक रहे ।। २१३।। गाथार्थ:- [ अनिच्छ: ] अनिच्छकको [ अपरिग्रहः ] अपरिग्रही [भणितः] कहा है [च ] और [ ज्ञानी] ज्ञानी [पानम् ] पानको (पेयको ) [ न इच्छति ] नहीं चाहता, [ तेन] इसलिये [ सः] वह [पानस्य ] पानका [अपरिग्रह: तु] परिग्रही नहीं, किन्तु [ ज्ञायकः ] (पानका) ज्ञायक ही [ भवति ] है। टीका:-इच्छा परिग्रह है। उसको परिग्रह नहीं है जिसको इच्छा नहीं है। इच्छा तो अज्ञानमय भाव है और अज्ञानमय भाव ज्ञानीके नहीं होता, ज्ञानीके ज्ञानमय ही भाव होता है; इसलिये अज्ञानमय भाव जो इच्छा उसके अभावसे ज्ञानी पान को पानी इत्यादि पेय को) नहीं चाहता; इसलिये ज्ञानीके पानका परिग्रह नहीं है। ज्ञानमय एक ज्ञायकभावके सद्भावके कारण यह (ज्ञानी) पानका केवल ज्ञायक ही भावार्थ:-आहारकी गाथाके भावार्थकी भाँति यहाँ भी समझना चाहिये। ऐसे ही अन्य भी अनेक प्रकारके परजन्य भावोंको ज्ञानी नहीं चाहता, यह कहते हैं: ये आदि विधविध भाव बहु ज्ञानी न इच्छे सर्वको । सर्वत्र आलंबन रहित बस, नियत ज्ञायकभाव वो ।। २१४ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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