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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ३०२ अथ भावनिर्जरास्वरूपमावेदयति दव्वे उवभुजंते णियमा जायदि सुहं व दुक्खं वा। तं सुहदुक्खमुदिण्णं वेददि अध णिज्जरं जादि।।१९४ ।। द्रव्ये उपभुज्यमाने नियमाज्जायते सुखं वा दुःखं वा। तत्सुखदुःखमुदीर्ण वेदयते अथ निर्जरां याति।।१९४ ।। उपभुज्यमाने सति हि परद्रव्ये, तन्निमित्तः सातासात-विकल्पानतिक्रमणेन वेदनायाः सुखरूपो वा दुःखरूपो वा नियमादेव जीवस्य भाव उदेति। स तु उपचार करता है इसीप्रकार-भोगोपभोगसामग्रीके द्वारा विषयरूप उपचार करता हुआ दिखाई देता है; किन्तु जैसे रोगी रोगको या औषधिको अच्छा नहीं मानता उसीप्रकार सम्यग्दृष्टि चारित्रमोहके उदयको या भोगोपभोगसामग्रीको अच्छा नहीं मानता। और निश्चयसे तो, ज्ञातृत्वके कारण सम्यग्दृष्टि विरागी उदयागत कर्मोको मात्र जान ही लेता है, उनके प्रति उसे रागद्वेषमोह नहीं है। इसप्रकार रागद्वेषमोहके बिना ही उनके फलको भोगता हुआ दिखाई देता है, तो भी उसके कर्मका आस्रव नहीं होता, कर्मास्रवके बिना आगामी बंध नहीं होता और उदयागतकर्म तो अपना रस देकर खिर ही जाते हैं क्योंकि उदयमें आनेके बाद कर्मकी सत्ता रह ही नहीं सकती। इसप्रकार उसके नवीन बंध नहीं होता और उदयागत कर्मकी निर्जरा हो जाने से उसके केवल निर्जरा ही हुई। इसलिये सम्यग्दृष्टि विरागीके भोगोपभोगको निर्जराका ही निमित्त कहा गया है। पूर्व कर्म उदयमें आकर उसका द्रव्य खिर गया सो वह द्रव्यनिर्जरा है। अब भावनिर्जराका स्वरूप कहते हैं: परद्रव्यके उपभोग निश्चय, दुख वा सुख होय है। इन उदित सुखदुख भोगता, फिर निर्जरा हो जाय है ।। १९४।। गाथार्थ:- [ द्रव्ये उपभुज्यमाने ] वस्तु भोगनेमें आनेपर, [ सुखं वा दुःखं वा] सुख अथवा दुःख [ नियमात् ] नियमसे [ जायते ] उत्पन्न होता है; [ उदीर्ण ] उदय को प्राप्त ( उत्पन्न हुवे ) [ तत् सुखदुःखम् ] उस सुखदुःखका [ वेदयते ] अनुभव करता है, [अथ] पश्चात् [ निर्जरां याति ] वह ( सुखदुःखरूप भाव ) निर्जरीको प्राप्त होता है। टीका:-परद्रव्य भोगनेमें आनेपर, उसके निमित्तसे जीवका सुखरूप अथवा दुःखरूप भाव नियमसे ही उदय होता है अर्थात् उत्पन्न होता है, क्योंकि वेदन साता और असाता-इन दो प्रकारोंका अतिक्रम नहीं करता (अर्थात् वेदन दो प्रकारका ही है-सातारूप और असातारूप)। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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