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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates संवर अधिकार २९३ यः सर्वसङ्गमुक्तो ध्यायत्यात्मानमात्मनात्मा। नापि कर्म नोकर्म चेतयिता चिन्तयत्येकत्वम्।। १८८ ।। आत्मानं ध्यायन् दर्शनज्ञानमयोऽनन्यमयः। लभतेऽचिरेणात्मानमेव स कर्मप्रविमुक्तम्।। १८९ ।। यो हि नाम रागद्वेषमोहमूले शुभाशुभयोगे वर्तमानं दृढतरभेद-विज्ञानावष्टम्भेन आत्मानं आत्मनैवात्यन्तं रुन्ध्वा शुद्धदर्शनज्ञानात्मन्यात्मद्रव्ये सुष्टु प्रतिष्ठितं कृत्वा समस्तपरद्रव्येच्छापरिहारेण समस्तसङ्गविमुक्तो भूत्वा नित्यमेवातिनिष्पकम्पः सन् मनागपि कर्मनोकर्मणोरसंस्पर्शेन आत्मीयमात्मा-नमेवात्मना ध्यायन् स्वयं सहजचेतयितृत्वादेकत्वमेव चेतयते, स खल्वे-कत्वचेतनेनात्यन्तविविक्तं चैतन्यचमत्कारमात्रमात्मानं ध्यायन्, शुद्धदर्शन-ज्ञानमयमात्मद्रव्यमवाप्तः, शुद्धात्मोपलम्भे सति समस्तपरद्रव्यमयत्व- मतिक्रान्तः सन्, अचिरेणैव सकलकर्मविमुक्तमात्मानमवाप्नोति। एष संवरप्रकारः। [ सर्वसङ्गमुक्तः ] ( ईच्छारहित होनेसे ) सर्व संगसे रहित होता हुआ, [ आत्मानम् ] (अपने) आत्माको [आत्मना] आत्माके द्वारा [ध्यायति] ध्याता है- और [कर्म नोकर्म] कर्म तथा नोकर्मको [न अपि] नहीं ध्याता एवं, [ चेतयिता] ( स्वयं) चेतयिता ( होनेसे) [ एकत्वम् ] एकत्वको ही [ चिन्तयति] चिंतवन करता है-अनुभव करता है, [ सः] वह (आत्मा), [आत्मानं ध्यायन्] आत्माको ध्याता हुआ, [ दर्शनज्ञानमयः] दर्शनज्ञानमय और [अनन्यमयः] अनन्यमय होता हुआ [अचिरेण एव ] अल्प कालमें ही [ कर्मप्रविमुक्तम् ] कर्मोंसे रहित [ आत्मानम् ] आत्माको [ लभते] प्राप्त करता है। टीका:- रागद्वेषमोह जिसका मूल है ऐसे शुभाशुभ योगमें प्रवर्तमान जो जीव दृढ़तर भेदविज्ञानके अवलंबनसे आत्माको आत्माके द्वारा ही अत्यंत रोककर, शुद्धदर्शनज्ञानरूप आत्मद्रव्यमें भलीभाँति प्रतिष्ठित (स्थिर) करके, समस्त परद्रव्यों की इच्छाके त्यागसे सर्व संगसे रहित होकर, निरंतर अति निष्कंप वर्तता हुआ, कर्मनोकर्मका किंचित्मात्र भी स्पर्श किये बिना अपने आत्माको ही आत्मासे द्वारा ध्याता हुआ, स्वयंको सहज चेतयितापन होनेसे एकत्वका ही चेतता (-अनुभव करता), है ( ज्ञान चेतना रूप रहता है), वह जीव वास्तवमें, एकत्व-चेतन द्वारा अर्थात् एकत्वके अनुभव द्वारा (परद्रव्यसे) अत्यंत भिन्न चैतन्यचमत्कारमात्र आत्माको ध्याता हुआ, शुद्धदर्शनज्ञानमय आत्मद्रव्यको प्राप्त होता हुआ, शुद्ध आत्माकी उपलब्धि (प्राप्ति) होनेपर समस्त परद्रव्यमयतासे अतिक्रांत होता हआ. अल्प कालमें ही सर्व कर्मोंसे रहित आत्माको प्राप्त करता है। यह संवरका प्रकार (विधि) है। १। चेतयिता = ज्ञाता दृष्टा। २। अनन्यमय = अन्यमय नहीं होता है ऐसा। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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