SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 32
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ००००००कोण्डकुंदो यतीन्द्रः ।। रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येपि संव्यञ्जयितं यतशि: रजःपदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।। [विंध्यगिरि – शिलालेख] अर्थ:- यतीश्वर [ श्री कुन्दकुन्दस्वामी ] रजःस्थानको-भूमितलको----- छोड़कर चार अंगुल ऊपर आकाशमें गमन करते थे उसके द्वारा मैं ऐसा समझता हूँ कि-- वे अंतरमें तथा बाह्य में रज से [ अपनी ] अत्यन्त असपृष्टता व्यक्त करते थे [----अनतरमें वे रागादिक मलसे असपृष्ट थे और बाह्य में धूल से असपृष्ट थे] । जइ पउमणंदिणाहो सीमंधरसामिदिव्वणाणेण । ण विवोहइ तो समणा कहं सुमग्गं यथाणंति ।। ---[ दर्शनसार] अर्थ:- [ महाविदेह क्षेत्रके वर्तमान तीर्थंकरदेव ] श्री सीमंधर स्वामी के प्राप्त हुए दिव्य ज्ञान द्वारा श्री पद्मनन्दिनाथने [ श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवने] बोध न दिया होता तो मुनिजन सच्चे मार्गको कैसे जानते ? हे कुन्दकुन्दादि आचार्यो ! आपके वचन भी स्वरूपानुसंधानमें इस पामर को पमर उपकारभूत हुए हैं। उसके लिये मैं आपको अत्यन्त भक्तिपूर्वक नमस्कार करता हूँ [ श्रीमद् राजचन्द्र] Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy