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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates संवर अधिकार २८५ अष्टविकल्पे कर्मणि नोकर्मणि चापि नास्त्युपयोगः। उपयोगे च कर्म नोकर्म चापि नो अस्ति।। १८२ ।। एतत्त्वविपरीतं ज्ञानं यदा तु भवति जीवस्य। तदा न किञ्चित्करोति भावमुपयोगशुद्धात्मा।। १८३ ।। न खल्वेकस्य द्वितीयमस्ति, द्वयोर्भिन्नप्रदेशत्वेनैकसत्तानुपपत्तेः। तदसत्त्वे च तेन सहाधाराधेयसम्बन्धोऽपि नास्त्येव। ततः स्वरूपप्रतिष्ठत्वलक्षण एवाधाराधेयसम्बन्धोऽवतिष्ठते। तेन ज्ञानं जानत्तायां स्वरूपे प्रतिष्ठितं, जानत्ताया ज्ञानादपृथग्भूतत्वात् , ज्ञाने एव स्यात्। क्रोधादीनि क्रुध्यत्तादौ स्वरूपे प्रतिष्ठितानि, क्रुध्यत्तादेः क्रोधादिभ्योऽपृथग्भूतत्वात्, क्रोधादिष्वेव स्युः। न पुन: क्रोधादिषु कर्मणि नोकर्मणि वा ज्ञानमस्ति, न च ज्ञाने क्रोधादयः कर्म नोकर्म वा सन्ति, परस्परमत्यन्तं स्वरूपवैपरीत्येन परमार्थाधाराधेयसम्बन्धशून्यत्वात्। [अष्टविकल्पे कर्मणि ] आठ प्रकारके कर्मोंमें [च अपि] और [ नोकर्मणि ] नोकर्ममें [ उपयोगः] उपयोग [ नास्ति ] नहीं है [च ] और [उपयोगे] उपयोगमें [ कर्म] कर्म [च अपि] तथा [नोकर्म ] नोकर्म [नो अस्ति ] नहीं है,- [एतत् तु] ऐसा [अविपरीतं] अविपरीत [ ज्ञानं ] ज्ञान [ यदा तु] जब [ जीवस्य ] जीवके [ भवति] होता है, [तदा] तब [ उपयोगशुद्धात्मा] वह उपयोग स्वरूप शुद्धात्मा [ किञ्चित् भावम् ] उपयोग के अतिरिक्त अन्य किसी भी भावको [ न करोति ] नहीं करता। टीका:-वास्तवमें एक वस्तुकी दूसरी वस्तु नहीं है (अर्थात् एक वस्तु दूसरी वस्तुके साथ कोई संबंध नहीं रखती) क्योंकि दोनोंके प्रदेश भिन्न हैं इसलिये उनमें एक सत्ताकी अनुपपत्ति है (अर्थात् दोनों की सत्ताएँ भिन्न भिन्न हैं); और इसप्रकार जब कि एक वस्तुकी दूसरी वस्तु नहीं है तब उनमें परस्पर आधाराधेयसंबंध भी है ही नहीं। इसलिये (प्रत्येक वस्तुका) अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठारूप (दृढ़तापूर्वक रहनेरूप) ही आधाराधेयसंबंध है। इसलिये ज्ञान जो कि जाननक्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित है वह, जाननक्रियाका ज्ञानसे अभिन्नत्व होनेसे , ज्ञानमें ही है; क्रोधाधिक जो कि क्रोधादिक्रियारूप अपने स्वरूपमें प्रतिष्ठित है वह, क्रोधादिक्रियाका क्रोधादिसे अभिन्नत्व होनेके कारण, क्रोधादिकमें ही है। (ज्ञानका स्वरूप जाननक्रिया है, इसलिये ज्ञान आधेय है और जाननक्रिया आधार है। जाननक्रिया आधार होनेसे यह सिद्ध हुआ कि ज्ञान ही आधार है, क्योंकि जाननक्रिया और ज्ञान भिन्न नहीं है। तात्पर्य यह हुआ कि ज्ञान ज्ञानमें ही है। इसीप्रकार क्रोध क्रोधमें ही है।) और क्रोधादिकमें, कर्ममें या नोकर्ममें ज्ञान नहीं है तथा ज्ञानमें क्रोधादिक, कर्म या नोकर्म नहीं है क्योंकि उनके परस्पर अत्यंत स्वरूप-विपरीतता होनेसे ( अर्थात् ज्ञानका स्वरूप और क्रोधादिक तथा कर्म-नोकर्मका स्वरूप अत्यंत विरुद्ध होनेसे) उनके परमार्थभूत आधाराधेयसंबंध नहीं Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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