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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates आस्रव अधिकार २७७ ( वसन्ततिलका) अध्यास्य शुद्धनयमुद्धतबोधतिसमैकण्यमेव कलयन्ति सदैव ये ते। रागादिमुक्तमनसः सततं भवन्त: पश्यन्ति बन्धविधुरं समयस्य सारम्।। १२० ।। (वसन्ततिलका) प्रच्युत्य शुद्धनयतः पुनरेव ये तु रागादियोगमुपयान्ति विमुक्तबोधाः। ते कर्मबन्धमिह बिभ्रति पूर्वबद्धद्रव्यानवैः कृतविचित्रविकल्पजालम्।। १२१ ।। अब, ज्ञानीको बंध नहीं होता यह शुद्धनयका माहात्मय है इसलिये शुद्धनयकी महिमा दर्शक काव्य कहते हैं :--- श्लोकार्थ:- [उद्धतबोधचिह्नम् शुद्धनयम् अध्यास्य ] उद्धत ज्ञान (-जो कि किसी के दबाये नहीं दब सकता ऐसा उन्नत ज्ञान) जिसका लक्षण है ऐसे शुद्धनयमें रहकर अर्थात् शुद्धनयका आश्रय लेकर [ ये] जो [ सदा एव] सदा ही [ ऐकण्यम् एव] एकाग्रताका [कलयन्ति] अभ्यास करते हैं [ ते] वे, [ सततं] निरंतर [ रागादिमुक्तमनसः भवन्तः] रागादिसे रहित चितवाले वर्तते हुए, [बन्धविधुरं समयस्य सारम् ] बंधरहित समयके सारको ( अपने शुद्ध आत्मस्वरूपको) [ पश्यन्ति ] देखते हैंअनुभव करते हैं। भावार्थ:-यहाँ शुद्धनयके द्वारा एकाग्रताका अभ्यास करनेको कहा है। 'मैं केवल ज्ञानस्वरूप हूँ, शुद्ध हूँ'-ऐसा जो आत्मद्रव्यका परिणमन वह शुद्धनय। ऐसे परिणमनके कारण वृत्ति ज्ञानकी ओर उन्मुख होती रहे और स्थिरता बढ़ती जाये सो एकाग्रताका अभ्यास है। शुद्धनय श्रुतज्ञानका अंश है और श्रुतज्ञान तो परोक्ष है इसलिये इस अपेक्षासे शुद्धनयके द्वारा होनेवाला शुद्ध स्वरूपका अनभव भी परोक्ष है। और वह अनभव एकदेश शुद्ध है इस अपेक्षासे उसे व्यवहारसे प्रत्यक्ष भी कहा जाता है। साक्षात् शुद्धनय तो केवलज्ञान होने पर होता है। १२० । अब यह कहते हैं कि जो शुद्धनयसे च्युत होते हैं वे कर्म बाँधते हैं: श्लोकार्थ:- [इह ] जगतमें [ ये] जो [ शुद्धनयतः प्रच्युत्य ] शुद्धनयसे च्युत होकर [ पुनः एव तु] पुनः [ रागादियोगम् ] रागादिके संबंधको [ उपयान्ति ] प्राप्त होते हैं [ ते] ऐसे जीव, [विमुक्तबोधाः] जिन्होंने ज्ञानको छोड़ा है ऐसे होते हुए, [ पूर्वबद्धद्रव्यास्रवैः ] पूर्वबद्ध द्रव्यास्रवके द्वारा [ कर्मबन्धम् ] कर्मबंधको [ विभ्रति ] धारण करते हैं (-कर्मोंको बाँधते हैं) - [कृत-विचित्र-विकल्प-जालम् ] जो कि कर्मबंध अनेक प्रकारके विकल्प जाल को करता है (अर्थात् जो कर्मबंध अनेक प्रकारका है)। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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