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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार शास्त्र का अर्थ करने की पद्धति व्यवहारनय स्वद्रव्य-परद्रव्यको तथा उसके भावोंको एवं कारण कार्यादिको किसीके किसीमें मिलाकर निरूपण करते है, इसलिये ऐसे ही श्रद्धान से मिथ्यात्व है, अतः इसका त्याग करना चाहिये । और निश्चयनय उसी को यथावत् निरूपण करता है, तथा किसीको किसीमें नहीं मिलाता, इसलिये ऐसे ही श्रद्धानसे सम्यक्त्व होता है, अत: उसका श्रद्धान करना चाहिये । प्रश्न-यदि ऐसा है तो, जिनमार्गमें दोनों नयोंका ग्रहण करना कहा है, उसका क्या कारण ? जिनमार्ग में कहीं तो निश्चयनय की मुख्यता सहित व्याख्यान है, उसे तो तसत्यार्थ इसी प्रकार है क्त ऐसा समझना चाहिये, तथा कहीं व्यवहारनयकी मुख्यता लेकर कथन किया गया है, उसे ऐसा नहीं है किन्तु निमित्तादिकी अपेक्षासे यह उपचार किया हैक्त ऐसा जानना चाहिये; और इस प्रकार जानने का नाम ही दोनों नयोंका ग्रहण है। किन्तु दोनों नयोंके व्याख्यान [ कथन-विवेचन को समान] सत्यार्थ जानकर इसप्रकार भी है और इस प्रकार भी हैक्त इसप्रकार भ्रमरूप प्रवर्तनेसे तो दोनों नयोंका ग्रहण करना कहा नहीं है । प्रश्न---- यदि व्यवहारनय असत्यार्थ है तो जिनमार्गमें उसका उपदेश क्यों दिया है ? एकमात्र निश्चयनय का ही निरूपण करना चाहिये था ? उत्तर---- ऐसा ही तर्क इस श्री समयसार में भी करते हुए यह उत्तर दिया है कि - जैसे किसी अनार्य म्लेच्छ को म्लेच्छ भाषा के बिना अर्थ ग्रहण करानेमें कोई समर्थ नहीं है, उसी प्रकार व्यवहार के बिना परमार्थ का उपदेश अशक्य है इसलिये व्यवहार का उपदेश है। और फिर इसी सूत्रकी व्याख्यामें ऐसा कहा है कि इस प्रकार निश्चयको अंगीकार करानेके लिये व्यवहारके द्वारा उपदेश देते हैं, किन्तु व्यवहार -नय है वह अंगीकार करने योग्य नहीं है । ---श्री मोक्षमार्ग प्रकाशक Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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