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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार २६२ यतो हि ज्ञानिनो ज्ञानमयैर्भावैरज्ञानमया भावाः परस्परविरोधि-नोऽवश्यमेव निरुध्यन्ते; ततोऽज्ञानमयानां भावानां रागद्वेषमोहानां आस्रवभूतानां निरोधात् ज्ञानिनो भवत्येव आस्रवनिरोधः। अतो ज्ञानी नास्रवनिमित्तानि पुद्गलकर्माणि बध्नाति, नित्यमेवाकर्तृत्वात् तानि नवानि न बध्नन् सदवस्थानि पूर्वबद्धानि, ज्ञानस्वभावत्वात्, केवलमेव जानाति। [ सः ] वह, [ सन्ति ] सत्तामें रहे हुए [ पूर्वनिबद्धानि] पूर्व बद्ध कर्मोको [ जानाति] जानता ही है। टीका:-वास्तवमें ज्ञानीके ज्ञानमय भावोंसे अज्ञानमय भाव अवश्य ही निरुद्धअभावरूप होते हैं क्योंकि परस्पर विरोधी भाव एकसाथ नहीं रह सकते; इसलिये अज्ञानमय भावरूप राग-द्वेष-मोह जो कि आस्रवभूत (आस्रवस्वरूप) हैं उनका निरोध होनेसे, ज्ञानीके आस्रवका निरोध होता ही है। इसलिये ज्ञानी, आस्रव जिनका निमित्त है ऐसे (ज्ञानावरणादि) पुद्गलकर्मोको नहीं बाँधता, -सदा अकर्तृत्व होनेसे नवीन कर्मोंको न बाँधता हुआ सत्तामें रहे हुए पूर्वबद्ध कर्मोको, स्वयं ज्ञानस्वभाववान् होनेसे, मात्र जानता ही है। ( ज्ञानीका ज्ञान ही स्वभाव है, कर्तृत्व नहीं; यदि कर्तृत्व हो तो कर्मको बाँधे, ज्ञातृत्व होनेसे कर्म बंध नहीं करता।) भावार्थ:-ज्ञानीके अज्ञानमय भाव नहीं होते, और अज्ञानमय भाव न होनेसे (अज्ञानमय) रागद्वेषमोह अर्थात् आस्रव नहीं होते और आस्रव न होनेसे नवीन बंध नहीं होते। इसप्रकार ज्ञानी सदा ही अकर्ता होनेसे नवीन कर्म नहीं बाँधता और जो पूर्वबद्ध कर्म सत्तामें विद्यमान है उनका मात्र ज्ञाता ही रहता है। अविरतसम्यग्दृष्टिके भी अज्ञानमय रागद्वेषमोह नहीं होता। जो मिथ्यात्व सहित रागादि होता है वही अज्ञानके पक्षमें माना जाता है, सम्यक्त्व सहित रागादिक अज्ञानके पक्षमें नहीं हैं। सम्यग्दृष्टिके सदा ज्ञानमय परिणमन ही होता है। उसको चारित्रमोहके उदयकी बलवत्तासे जो रागादि होता है उसका स्वामित्व उसके नहीं है; वह रागादिको रोग समान जानकर प्रवर्तता है और अपनी शक्तिके अनुसार उन्हें काटता जाता है। इसलिये ज्ञानीके जो रागादि होता है वह विद्यमान होनेपर भी अविद्यमान जैसा ही है; वह आगामी सामान्य संसारका बंध नहीं करता, मात्र अल्प स्थिति-अनुभागवाला बंध करता है। ऐसे अल्प बंधको यहाँ नहीं गिना है। इसप्रकार ज्ञानीके आस्रव नहीं होनेसे बंध नहीं होता। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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