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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पुण्य-पाप अधिकार हैं: ( मन्दाक्रान्ता ) भेदोन्मादं भ्रमरसभरान्नाटयत्पीतमोहं मूलोन्मूलं सकलमपि तत्कर्म कृत्वा बलेन। हेलोन्मीलत्परमकलया सार्धमारब्धकेलि ज्ञानज्योतिः कवलिततमः प्रोज्जजृम्भे भरेण ।। ११२ ।। आंतरिक-आलंबन (अंतः साधन ) तो शुद्ध परिणति स्वयं ही है तथापि—आंतरिकआलंबन लेनेवाले को जो बाह्य आलंबनरूप होते हैं ऐसे ( शुद्ध स्वरूपके विचार आदि) शुभ परिणामोंमें वे जीव हेयबुद्धिसे प्रवर्तते हैं, किन्तु शुभ कर्मोंको निरर्थक मानकर उन्हें छोड़कर स्वच्छंदतया अशुभ कर्मोंमें प्रवृत्त होनेकी बुद्धि कभी नहीं होती । ऐसे एकांत अभिप्राय रहित जीव कर्मोंका नाश करके, संसारसे निवृत्त होते हैं। १११। अब पुण्य-पाप अधिकारको पूर्ण करते हुए आचार्यदेव ज्ञानकी महिमा करते २५७ श्लोकार्थ:-[ पीतमोहं] मोहरूपी मदिरा के पीनेसे, [ भ्रम - रस-भरात् भेदोन्मादं नाटयत् ] भ्रमरसके भारसे ( अतिशयपनेसे ) शुभाशुभ कर्मके भेदरूपी उन्मादको जो नचाता है [ तत् सकलम् अपि कर्म ] ऐसे समस्त कर्म को [ बलेन ] अपने बलद्वारा [ मूलोन्मूलं कृत्वा ] समूल उखाड़कर [ ज्ञानज्योतिः भरेण प्रोज्जजृम्भे ] अत्यंत सामर्थ्य युक्त ज्ञानज्योति प्रगट हुई। यह ज्ञानज्योति ऐसी है कि जिसने [ कवलिततमः] अज्ञानरूपी अंधकारका ग्रास कर लिया है अर्थात् जिसने अज्ञानरूपी अंधकारका नाश कर दिया है, [ हेला - उन्मिलत्] जो लीलामात्रसे ( - सहज पुरुषार्थसे) विकसित होती जाती है और [ परमकलया सार्धम् आरब्धकेलि ] जिसने परम कला अर्थात् केवलज्ञानके साथ क्रीड़ा प्रारम्भ की है ऐसी ज्ञानज्योति है। ( जबतक सम्यग्दृष्टि छद्मस्थ है तबतक ज्ञानज्योति केवलज्ञानके साथ शुद्धन के बल से परोक्ष क्रीड़ा करती है, केवलज्ञान होने पर साक्षात् होती है । ) भावार्थ:-आपको ( ज्ञानज्योतिको) प्रतिबंधक कर्म ( भावकर्म ) जो कि शुभाशुभ भेदरूप होकर नाचता था और ज्ञानको भुला देता था उसे अपनी शक्तिसे उखाड़कर ज्ञानज्योति संपूर्ण सामर्थ्य सहित प्रकाशित हुई। वह ज्ञानज्योति अथवा ज्ञानकला केवलज्ञानरूपी परमकलाका अंश है तथा वह केवलज्ञानके संपूर्ण स्वरूपको जानती है और उस ओर प्रगति करती है, इसलिये यह कहा है कि “ ज्ञानज्योतिने केवलज्ञानके साथ कीड़ा प्रारम्भ की है ” । ज्ञानकला सहजरूपसे विकासको प्राप्त होती जाती है और अन्तमें वह परमकला अर्थात् केवलज्ञान हो जाती है । ११२ । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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