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________________ २३८ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार तम्हा दु कुसीलेहिय रागं मा कुणह मा व संसग्गं । साहीणो हि विणासो कुसीलसंसग्गरायेण ।। १४७ ।। तस्मात्तु कुशीलाभ्यां च रागं मा कुरुत मा वा संसर्गम्। स्वाधीनो हि विनाशः कुशीलसंसर्गरागेण ।। १४७ ।। कुशीलशुभाशुभकर्मभ्यां सह रागसंसर्गौ प्रतिषिद्धौ, बन्धहेतुत्वात्, कुशीलमनोरमामनोरमकरेणुकुट्टनीरागसंसर्गवत्। अथोभयं कर्म प्रतिषेध्यं स्वयं दृष्टान्तेन समर्थयते जह णाम को वि पुरिसो कुच्छियसीलं जणं वियाणित्ता । वज्जेदि तेण समयं संसग्गं रागकरणं च ।। १४८ ।। एमेव कम्मपयडीसीलसहावं च कुच्छिदं णादुं । वज्जंति परिहरति य तस्संसग्गं सहावरदा।। १४९ । इससे करो नहिं राग वा संसर्ग उभय कुशील का । इस कुशीलके संसर्गसे है, नाश तुम स्वातंत्र्यका ।। १४७ ।। गाथार्थ:- [ तस्मात् तु ] इसलिये [ कुशीलाभ्यां ] इन दोनों कुशीलोंके साथ [ रागं ] राग [ मा कुरुत ] मत करो [ वा ] अथवा [ संसर्गम् च ] संसर्ग भी [ मा] मत करो [हि ] क्योंकि [ कुशीलसंसर्गरागेण ] कुशीलके साथ संसर्ग और राग करनेसे [ स्वाधीनः विनाशः ] स्वाधीनताका नाश होता है ( अथवा अपने द्वारा ही अपना घात होता है)। टीका:-जैसे कुशील -- मनोरम और अमनोरम हथिनीरूप कुट्टनी के साथ ( हाथीका ) राग और संसर्ग बंध ( बंधन ) का कारण होता है, उसीप्रकार कुशील अर्थात् शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और संसर्ग बंधके कारण होनेसे, शुभाशुभ कर्मोंके साथ राग और संसर्गका निषेध किया गया है। अब, भगवान कुंदकुंदाचार्य स्वयं ही दृष्टांतपूर्वक यह समर्थन करते हैं कि दोनों कर्म निषेध्य हैं : जिस भाँति कोई पुरुष, कुत्सितशील जनको जानके । संसर्ग उसके साथ त्योंही, राग करना परितजे ।। १४८ । यों कर्म प्रकृतिशील और स्वभाव कुत्सित जानके । निज भावमें रत राग अरु संसर्ग उसका परिहरे ।। १४९ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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