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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार २०१ कर्मतामापद्यमानस्य कर्तृत्वमापद्येत। स तु ज्ञानिनः सम्यक्स्वपरविवेकेनात्यन्तोदितविविक्तात्मख्यातित्वात् ज्ञानमय एव स्यात्। अज्ञानिनः तु सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वादज्ञानमय एव स्यात्। किं ज्ञानमयभावात्किमज्ञानमयाद्भवतीत्याह अण्णाणमओ भावो अणाणिणो कुणदि तेण कम्माणि। णाणमओ णाणिस्स दुण कुणदि तम्हा दु कम्माणि।। १२७ ।। अज्ञानमयो भावोऽज्ञानिनः करोति तेन कर्माणि। ज्ञानमयो ज्ञानिनस्तु न करोति तस्मात्तु कर्माणि।। १२७ ।। अज्ञानिनो हि सम्यक्स्वपरविवेकाभावेनात्यन्तप्रत्यस्तमितविविक्तात्मख्यातित्वा -कर्मत्व को प्राप्त हुएका ही-कर्ता वह होता है (अर्थात् वह भाव आत्माका कर्म है और आत्मा उसका कर्ता है)। वह भाव ज्ञानीको ज्ञानमय ही है क्योंकि उसे सम्यक् प्रकारसे स्वपरके विवेकसे (सर्व परद्रव्यभावोंसे) भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यंत उदयको प्राप्त हुई है। और वह भाव अज्ञानीको तो अज्ञानमय ही हैं क्योंकि उसे सम्यक् प्रकारसे स्वपरका विवेक न होनेसे भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यंत अस्त हो गई है। भावार्थ:-ज्ञानीको तो स्वपरका भेदज्ञान हुआ है इसलिये उसके अपने ज्ञानमय भावका ही कर्तृत्व; और अज्ञानीको स्वपरका भेदज्ञान नहीं है इसलिये उसके अज्ञानमय भावका ही कर्तृत्व है। अब यह कहते हैं कि ज्ञानमय भावसे क्या होता है और अज्ञानमय भावसे क्या होता है : अज्ञानमय अज्ञानिका, जिससे करे वो कर्मको । पर ज्ञानमय है ज्ञानिका, जिससे करे नहिं कर्म वो ।। १२७ ।। गाथार्थ:- [अज्ञानिनः ] अज्ञानीके [अज्ञानमयः ] अज्ञानमय [ भावः ] भाव हैं [ तेन ] इसलिये वह [कर्माणि] कर्मोको [ करोति] करता है, [ज्ञानिनः तु] और ज्ञानीके तो [ ज्ञानमयः ] ज्ञानमय (भाव) हैं [ तस्मात् तु] इसलिये ज्ञानी [कर्माणि] कर्मोंको [ न करोति ] नहीं करता। टीका:-अज्ञानीके सम्यक् प्रकारसे स्वपरका विवेक न होनेके कारण भिन्न आत्माकी ख्याति अत्यंत अस्त हो गई होनेसे, Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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