SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 208
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार १७४ ( वसंततिलका) अज्ञानतस्तु सतृणाभ्यवहारकारी ज्ञानं स्वयं किल भवन्नपि रज्यते यः। पीत्वा दधोक्षुमधुराम्लरसातिगृद्ध्या गां दोग्धि दुग्धमिव नूनमसौ रसालम्।। ५७ ।। (शार्दूलविक्रीडित) अज्ञानान्मृगतृष्णिकां जलधिया धावन्ति पातुं मृगा अज्ञानात्तमसि द्रवन्ति भुजगाध्यासेन रज्जौ जनाः। अज्ञानाच्च विकल्पचक्रकरणाद्वातोत्तरङ्गाब्धिवत् शुद्धज्ञानमया अपि स्वयममी कीभवन्त्याकुलाः।। ५८ ।। श्लोकार्थ:- [ किल ] निश्चयसे [ स्वयं ज्ञानं भवन् अपि ] स्वयं ज्ञानस्वरूप होने पर भी [ अज्ञानतः तु] अज्ञानके कारण [ यः ] जो जीव, [ सतृणाभ्यवहारकारी] घास के साथ एकमेक हुए सुंदर भोजनको खानेवाले हाथी आदि पशुओंकी भाँति, [ रज्यते] राग करता है (रागका और अपना मिश्र स्वाद लेता है) [असौ] वह, [ दधीक्षुमधुराम्लरसातिगृद्ध्या] श्रीखंडके खाट्टे-मीठे स्वाद की अति लोलुपतासे [ रसालम् पीत्वा ] श्रीखंडको पीता हुआ [ गां दुग्धम् दोग्धि इव नूनम् ] स्वयं गायका दूध पी रहा है ऐसा माननेवाले पुरुषके समान है। भावार्थ:-जैसे हाथीको घाससे और सुंदर आहारके भिन्न स्वादका भान नहीं होता उसीप्रकार अज्ञानीको पुद्गलकर्मका और अपने भिन्न स्वादका भान नहीं होता; इसलिये वह एकाकाररूपसे रागादिमें प्रवृत्त होता है। जैसे श्रीखंडका स्वाद लोलुप पुरुष, श्रीखंडके स्वादभेदको न जानकर, श्रीखंडके स्वादको मात्र दूधका स्वाद जानता है उसीप्रकार अज्ञानी जीव स्व-परके मिश्र स्वादको अपना स्वाद समझता है। । ५७। अज्ञानसे ही जीव कर्ता होता है इसी अर्थका कलशरूप काव्य कहते हैं: श्लोकार्थ:- [अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [ मृगतृष्णिकां जलधिया ] मृगमरीचिका में जलकी बुद्धि होनेसे [ मृगाः पातुं धावन्ति] हिरण उसे पीनेको दौड़ते हैं; [ अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण ही [ तमसि रज्जौ भुजगाध्यासेन] अंधकारमें पड़ी हुई रस्सी में सर्पका अध्यास होनेसे [ जनाः द्रवन्ति ] लोग (भयसे) भागते हैं; [च ] और (इसीप्रकार) [अज्ञानात् ] अज्ञानके कारण [अमी] ये जीव, [ वातोत्तरङ्गाब्धिवत् ] पवनसे तरंगित समुद्रकी भाँति [विकल्पचक्रकरणात् ] विकल्पोंके समूहको करनेसे[शुद्धज्ञानमयाः अपि] यद्यपि ये स्वयं शुद्धज्ञानमय हैं तथापि- [आकुलाः ] आकुलता होते हुए [ स्वयम् ] अपने आप ही [ कीभवन्ति ] कर्ता होते हैं। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy