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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार १५० ततः स्थितमेतज्जीवस्य स्वपरिणामैरेव सह कर्तृकर्मभावो भोक्तभोग्यभावश्चणिच्छयणयस्स एवं आदा अप्पाणमेव हि करेदि। वेदयदि पुणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं।। ८३ ।। निश्चयनयस्यैवमात्मात्मानमेव हि करोति। वेदयते पुनस्तं चैव जानीहि आत्मा त्वात्मानम्।। ८३ ।। यथोत्तरङ्गनिस्तरङ्गावस्थयोः समीरसञ्चरणासञ्चरणनिमित्तयोरपि समीरपारावारयोर्व्याप्यव्यापकभावाभावात्कर्तृकर्मत्वासिद्धौ, पारावार एव स्वयमन्तर्व्यापको भूत्वादिमध्यान्तेषूत्तरङ्गनिस्तरणावस्थे व्याप्योत्तरङ्गं निस्तरङ्गं त्वात्मानं कुर्वन्नात्मानमेकमेव कुर्वन् प्रतिभाति, न पुनरन्यत; यथा स एव च भाव्यभावकभावाभावात्परभावस्य परेणानुभवितुमशक्यत्वादुत्तरङ्गं निस्तरङ्गं त्वात्मानमनुभवन्नात्मानमेकमेवानुभवन् । इसलिये यह सिद्ध हुआ कि जीवको अपने ही परिणामों के साथ कर्ताकर्मभाव और भोक्ताभोग्यभाव (भोक्ताभोग्यपना) है ऐसा अब कहते हैं: आत्मा करे निजको हि ये, मंतव्य निश्चयनय हि का। अरु भोगता निजको हि आत्मा, शिष्य यों तू जानना।। ८३।। गाथार्थ:- [ निश्चयनयस्य ] निश्चयनयका [एवम् ] ऐसा मत है कि [ आत्मा ] आत्मा [आत्मानम् एव हि ] अपने को ही [ करोति ] करता है [तु पुनः ] और फिर [ आत्मा ] आत्मा [ तं च एव आत्मानम् ] अपने को ही [ वेदयते ] भोगता है ऐसा हे शिष्य! तू [ जानीहि ] जान। टीका:-जैसे उत्तरंग और निस्तरंग अवस्थाओंको हवाका चलना और न चलना निमित्त होने पर भी हवा और समुद्रको व्याप्यव्यापकभावका अभाव होनेसे कर्ताकर्मपनेकी असिद्धि है इसलिये, समुद्र ही स्वयं अंतर्व्यापक होकर उत्तरंग अथवा निस्तरंग अवस्थामें आदि-मध्य-अंतमें व्याप्त होकर उत्तरंग अथवा निस्तरंग ऐसा अपने को करता हुआ, स्वयं एकको ही करता हुआ प्रतिभासित होता है परंतु अन्यको करता हुआ प्रतिभासित नहीं होता; और फिर जैसे वही समुद्र, भाव्यभावकभावके अभावके कारण परभावका पर के द्वारा अनुभवन अशक्य होनेसे, अपनेको उत्तरंग अथवा निस्तरंगरूप अनुभवन करता हुआ स्वयं एकको ही अनुभव करता हुआ १। उत्तरंग = जिसमें तरंगें उठती हैं ऐसा; तरंगवाला। २। निस्तरंग = जिसमें तरंगें विलय हो गई हैं एसा; बिना तरंगों का। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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