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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार तथोत्पद्यते च, ततः प्राप्यं विकार्यं निर्वर्त्यं च व्याप्यलक्षणं परद्रव्यपरिणामं कर्माकुर्वाणस्य पुद्गलकर्म जानतोऽपि ज्ञानिनः पुद्गलेन सह न कर्तृकर्मभावः । स्वपरिणामं जानतो जीवस्य सह पुद्गलेन कर्तृकर्मभावः किं भवति किं न भवतीति चेत् ण विपरिणमदि ण गिण्हदि उप्पज्जदि ण परदव्वपज्जाए । पाणी जाणतो वि हु सगपरिणामं अणेयविहं ।। ७७ ।। " , इसलिये, यद्यपि ज्ञानी पुद्गलकर्मको जानता है तथापि प्राप्य विकार्य और निर्वर्त्य ऐसा जो व्याप्यलक्षणवाला परद्रव्यपरिणामस्वरूप कर्म है, उसे न करने वाले ज्ञानीका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव नहीं है। १४३ भावार्थ:-जीव पुद्गलकर्मको जानता है तथापि उसे पुद्गलके साथ कर्ताकर्मपना नहीं है । सामान्यतया कर्ताका कर्म तीन प्रकारका कहा जाता है - निर्वर्त्य, विकार्य और प्राप्य। कर्ताके द्वारा, जो पहले न हो ऐसा नवीन कुछ उत्पन्न किया जाये सो कर्ताका निर्वर्त्य कर्म है। कर्ता के द्वारा, पदार्थ में विकार - परिवर्तन करके जो कुछ किया जाये वह कर्ताका विकार्य कर्म है। कर्ता, जो नया उत्पन्न नहीं करता तथा विकार करके भी नहीं करता, मात्र जिसे प्राप्त करता है वह कर्ताका प्राप्य कर्म है। जीव पुद्गलकर्मको नवीन उत्पन्न नहीं कर सकता क्योंकि चेतन जड़को कैसे उत्पन्न कर सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म जीवका निर्वर्त्य कर्म नही है । जीव पुद्गलमें विकार करके उसे पुद्गलकर्मरूप परिणमन नहीं करा सकता क्योंकि चेतन जड़को कैसे परिणमित करा सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म जीवका विकार्य कर्म भी नहीं है। परमार्थसे जीव पुद्गलको ग्रहण नहीं करता क्योंकि अमूर्तिक पदार्थ मूर्तिकको कैसे ग्रहण कर सकता है ? इसलिये पुद्गलकर्म जीवका प्राप्य कर्म भी नहीं है। इसप्रकार पुद्गलकर्म जीवका कर्म नहीं और जीव उसका कर्ता नहीं । जीवका स्वभाव ज्ञाता है इसलिये ज्ञानरूप परिणमन करता हुआ स्वयं पुद्गलकर्मको जानता है; इसलिये पुद्गलकर्मको जानने वाले ऐसे जीवका परके साथ कर्ताकर्मभाव कैसे हो सकता है ? नहीं ही हो सकता । अब प्रश्न करता है कि अपने परिणामको जानने वाले ऐसे जीवका पुद्गलके साथ कर्ताकर्मभाव ( कर्ताकर्मपना ) है या नहीं ? उसका उत्तर कहते हैं: बहुभाँति निज परिणाम सब, ज्ञानी पुरुष जाना करे । परद्रव्यपर्यायों न प्रणमें, नहिं ग्रहे, नहिं ऊपजे ।। ७७ ।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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