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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates कर्ता-कर्म अधिकार १३७ जतुपादपवद्वध्यघातकस्वभावत्वाज्जीवनिबद्धाः, खल्वास्रवाः, न पुनरविरुद्धस्वभावत्वाभावाज्जीव एव। अपस्माररयवद्वर्धमानहीयमानत्वादधुवा: खल्वास्रवाः, ध्रुवश्चिन्मात्रो जीव एव। शीतदाहज्वरावेशवत् क्रमेणोज्जृम्भमाणत्वादनित्याः खल्वास्रवाः, नित्यो विज्ञानघनस्वभावो जीव एव। बीजनिर्मोक्षक्षणक्षीयमाणदारुणस्मर- संस्कारवत्त्रातुमशक्यत्वादशरणा: खल्वास्रवाः, सशरण: स्वयं गुप्त: सहजचिच्छक्तिीव एव। नित्यमेवाकुलस्वभावत्वादु:खानि खल्वास्रवाः, अदु:खं नित्यमेवानाकुलस्वभावो जीव एव। आयत्यामाकुलत्वोत्पादकस्य पुद्गलपरिणामस्य हेतुत्वादुःखफला:खल्वास्रवाः, अदु:खफल: सकलस्यापि पुद्गलपरिणामस्याहेतुत्वाज्जीव एव। इति विकल्पानन्तरमेव शिथिलितकर्मविपाको विघटितघनौघघटनो दिगाभोग इव निरर्गलप्रसर: सहजविजृम्भमाणचिच्छक्तितया यथा यथा विज्ञानघनस्वभावो भवति तथा तथास्रवेभ्यो निवर्तते, - [इति ज्ञात्वा ] ऐसा जानकर ज्ञानी [ तेभ्यः ] उनसे [ निवर्तते ] निवृत्ति होता है। टीका:-वृक्ष और लाखकी भाँति वध्य-घातकस्वभावपना होनेसे आस्रव जीवके साथ बँधे हुए हैं, किन्तु अविरुद्धस्वभावतत्वका अभाव होनेसे वे जीव ही नहीं हैं। ( लाखके निमित्तसे पीपल आदि वृक्षका नाश होता है। लाख घातक है और वृक्ष वध्य घात होने योग्य )। इसप्रकार लाख और वृक्षका स्वभाव एक दूसरेसे विरुद्ध है इस लिये लाख वृक्ष के साथ मात्र बंधी हुई ही है; लाख स्वयं वृक्ष नहीं है। इसीप्रकार आस्रव घातक है और आत्मा वध्य है। इसप्रकार विरुद्ध स्वभाव होनेसे आस्रव स्वयं जीव नहीं हैं।) आस्रव मृगीके वेगकी भाँति बढ़ते-घटते होनेसे अध्रुव हैं; चैतन्यमात्र जीव ही ध्रुव है। आस्रव शीतदाहज्वर के आवेशकी भाँति अनुक्रमसे उत्पन्न होते हैं इस लिये अनित्य हैं; विज्ञानघन जिसका स्वभाव है ऐसा जीव ही नित्य है। जैसे कामसेवनमें वीर्य छूट जाता है उसी क्षण दारुण कामका संस्कार नष्ट हो जाता है, किसीसे नहीं रोका जा सकता, इसीप्रकार कर्मोदय छूट जाता है उसी क्षण आस्रव नाशको प्राप्त हो जाता है, रोका नहीं जा सकता, इसलिये वे (आस्रव) अशरण हैं; स्वयं रक्षित सहज चित्रशक्तिरूप जीव ही शरणसहित है। आस्रव सदा आकुल स्वभाववाले होनेसे दुःखरूप है; सदा निराकुल स्वभाववाला जीव ही अदुःखरूप अर्थात् सुखरूप है। आस्रव आगामी कालमें आकुलताको उत्पन्न करनेवाले ऐसे पुद्गलपरिणामके हेतु होनेसे दुःखफलरूप (दुःख जिसका फल है ऐसे) हैं; जीव ही समस्त पुद्गलपरिणामका अहेतु होने से अदुःखफल (दुःखफलरूप नहीं) है -ऐसा आस्रवोंका और जीव का भेदविज्ञान होते ही (तत्काल ही) जिसमें कर्मविपाक शिथिल हो गया है ऐसा वह आत्मा, जिसमें बादल समूह की रचना खंडित हो गई है ऐसी दशा के विस्तार की भाँति अमर्याद जिसका विस्तार है ऐसा, सहज रूप से विकास को प्राप्त चित्रशक्तिसे ज्यों ज्यों विज्ञानघन स्वभाव होता जाता है त्यों त्यों Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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