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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार १२८ जाव ण वेदि विसेसंतरं तु आदासवाण दोण्हं पि। अण्णाणी ताव दु सो कोहादिसु वट्टदे जीवो।। ६९ ।। कोहादिसु वढ्तस्स तस्स कम्मस्स संचओ होदि। जीवस्सेवं बंधो भणिदो खलु सव्वदरिसीहिं।।७० ।। यावन्न वेत्ति विशेषान्तरं त्वात्मानवयोर्द्वयोरपि। अज्ञानी तावत्स क्रोधादिषु वर्तते जीवः।। ६९ ।। क्रोधादिषु वर्तमानस्य तस्य कर्मणः सञ्चयो भवति। जीवस्यैवं बन्धो भणितः खलु सर्वदर्शिभिः।। ७० ।। यथायमात्मा तादात्म्यसिद्धसम्बन्धयोरात्मज्ञानयोरविशेषाद्भेदम भावार्थ:-ऐसा ज्ञानस्वरूप आत्मा है वह, परद्रव्य तथा परभावोंके कर्तृत्वरूप अज्ञानको दूर करके, स्वयं प्रगट प्रकाशमान होता है।। ४६।। अब, जब तक यह जीव आस्रवके और आत्माके विशेषको (अंतरको) नहीं जाने तबतक वह अज्ञानी रहता हुआ , आस्रवोमें स्वयं लीन होता हुआ, कर्मोंका बंध करता है यह गाथा द्वारा कहते हैं: रे आत्मा आस्रव का जहाँ तक , भेद जीव जाने नहीं। क्रोधादिमें स्थिति होय है, अज्ञानि ऐसे जीवकी।। ६९।। जीव वर्तता क्रोधादिमें, तब करम संचय होय हैं। सर्वज्ञ ने निश्चय कहा,यों बंध होता जीवके।। ७०।। गाथार्थ:- [ जीवः ] जीव [ यावत् ] जब तक [ आत्मास्रवयोः द्वयोः अपि तु] आत्मा और आस्रव-इन दोनोंके [विशेषान्तरं] अन्तर और भेदको [न वेत्ति] नहीं जानता [ तावत् ] तबतक [ सः] वह [ अज्ञानी] अज्ञानी रहता हुआ [ क्रोधादिषु] क्रोधादिक आस्रवोंमें [ वर्तते ] प्रवर्तता है; [ क्रोधादिषु ] क्रोधादिकमें [ वर्तमानस्य तस्य ] प्रवर्तमान उसके [ कर्मणः ] कर्मका [ सञ्चयः ] संचय [भवति] होता है। [खलुं] वास्तव में [ एवं ] इसप्रकार [ जीवस्य ] जीवके [ बन्धः] कर्मोंका बंध [ सवदर्शिभिः] सर्वज्ञदेवोंने [ भणितः ] कहा है। टीका:-जैसे यह आत्मा, जिनके तादात्म्यसिद्ध संबंध है ऐसे आत्मा और ज्ञानमें विशेष (अन्तर, भिन्न लक्षण) न होनेसे उनके भेदको (पृथकत्वको) Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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