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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ११४ जीवस्य वर्णादितादात्म्यदुरभिनिवेशे दोषश्चायम्जीवो चेव हि एदे सव्वे भाव त्ति मण्णसे जदि हि। जीवस्साजीवस्स य णत्थि विसेसो दु दे कोई।। ६२ ।। जीवश्चैव ह्येते सर्वे भावा इति मन्यसे यदि हि। जीवस्याजीवस्य च नास्ति विशेषस्तु ते कश्चित्।। ६२ ।। यथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ता-भिर्व्यक्तिभिः पुद्गलद्रव्यमनुगच्छन्तः पुद्गलस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्ति, तथा वर्णादयो भावाः क्रमेण भाविताविर्भावतिरोभावाभिस्ताभिस्ताभिर्व्यक्तिभिर्जीवमनुगच्छन्तो जीवस्य वर्णादितादात्म्यं प्रथयन्तीति यस्याभिनिवेशः तस्य शेषद्रव्यासाधारणस्य वर्णाद्यात्मकत्वस्य पुद्गललक्षणस्य जीवेन स्वीकरणाज्जीवपुद्गलयोर-विशेषप्रसक्तौ सत्यां पुद्गलेभ्यो भिन्नस्य जीवद्रव्यस्याभावाद्भवत्येव जीवाभावः। अब, यदि कोई ऐसा मिथ्या अभिप्राय व्यक्त करे कि जीवका वर्णादिके साथ तादात्म्य है, तो उसमें यह दोष आता है ऐसा इस गाथा द्वारा कहते हैं: ये भाव सब हैं जीव जो, ऐसा ही तू माने कभी। तो जीव और अजीवमें कुछ, भेद तुझ रहता नहीं!।। ६२।। गाथार्थ:-वर्णादिकके साथ जीवका तादात्म्य माननेवाले को कहते हैं किः हे मिथ्या अभिप्रायवाले! [ यदि हि च] यदि तुम [इति मन्यसे ] ऐसे मानोगे कि [ एते सर्वे भावाः ] यह वर्णादिक सर्व भाव [ जीवः एव हि] जीव ही हैं, [ तु] तो [ ते] तुम्हारे मतमें [जीवस्य च अजीवस्य ] जीव और अजीवका [ कश्चित् ] कोई [ विशेषः] भेद [ नास्ति ] नहीं रहता। टीका:-जैसे वर्णादिक भाव, क्रमशः आविर्भाव (प्रगट होना, उपजना) और तिरोभाव (छिप जाना, नाश हो जाना) को प्राप्त होती हुई ऐसी उन उन व्यक्तियों के द्वारा (अर्थात् पर्यायों के द्वारा) पुद्गलद्रव्यके साथ ही साथ रहते हुये, पुद्गलका वर्णादिके साथ तादात्म्य प्रसिद्ध करते हैं-विस्तारते हैं, इसीप्रकार वर्णादिक भाव, क्रमशः आविर्भाव और तिरोभावको प्राप्त होती हुई ऐसी उन उन व्यक्तियों के द्वारा जीवके साथ ही साथ रहते हुये, जीवका वर्णादि के साथ तादात्म्य प्रसिद्ध करते हैं,-ऐसा जिसका अभिप्राय है उसके मतमें, अन्य शेष द्रव्योंसे असाधारण ऐसी वर्णादिस्वरूपता कि जो पुद्गलद्रव्यका लक्षण है-उसका जीव के द्वारा अंगीकार किया जाता है इसलिये, जीव-पुद्गलके अविशेषका प्रसंग आता है, और ऐसा होने से, पुद्गलसे भिन्न ऐसा कोई जीवद्रव्य न रहनेसे , जीवका अवश्य अभाव होता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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