SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 146
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ११२ जीवस्य सर्वाण्यपि न सन्ति , तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात्। तत्थ भवे जीवाणं संसारत्थाण होंति वण्णादी। संसारपमुक्काणं णत्थि हु वण्णादओ केई।। ६१ ।। कुतो जीवस्य वर्णादिभिः सह तादात्म्यलक्षणः सम्बन्धो नास्तीति चेत् ऐसे जीव के वे सब नहीं हैं, क्योंकि इन वर्णादि भावोंके और जीवके तादात्म्यलक्षण संबंधका अभाव है। भावार्थ:-ये वर्णसे लेकर गुणस्थान पर्यंत भाव सिद्धांतमें जीवके कहे हैं वे सब व्यवहारनयसे कहे हैं; निश्चयनयसे वे जीव के नहीं हैं क्योंकि जीव तो परमार्थसे उपयोगस्वरूप है। यहाँ ऐसा जानना कि -पहले व्यवहारनयको असत्यार्थ कहा था सो वहाँ ऐसा न समझना कि वह सर्वथा असत्यार्थ है, किन्तु कथंचित् असत्यार्थ जानना; क्योंकि जब एक द्रव्यको भिन्न, पर्यायोंसे अभेदरूप, उसके असाधारण गुणमात्रको प्रधान करके कहा जाता है तब परस्पर द्रव्योंका निमित्तनैमित्तिकभाव तथा निमित्तसे होने वाली पर्यायें-वे सब गौण हो जाते हैं, वे एक अभेदद्रव्यकी दृष्टिमें प्रतिभासित नहीं होते, इसलियेवे सब उस द्रव्यमें नहीं हैं इसप्रकार कथंचित् निषेध किया जाता है। यदि उन भावोंको उस द्रव्यमें कहा जाये तो वह व्यवहारनयसे कहा जा सकता है। ऐसा नयविभाग है। यहाँ शुद्धनयकी दृष्टिसे कथन है इसलिये ऐसा सिद्ध किया है कि जो यह समस्त भाव सिद्धान्तमें जीवके कहे गये हैं सो व्यवहारसे कहे गये हैं। यदि नमित्तनैमित्तिकभावकी दृष्टिसे देखा जाये तो वह व्यवहार कथंचित् सत्यार्थ भी कहा जा सकता है। यदि सर्वथा असत्यार्थ ही कहा जाये तो सर्व व्यवहारका लोप हो जायेगा और सर्व व्यवहारका लोप होनेसे परमार्थका भी लोप हो जायेगा। इसलिये जिनन्द्रदेवका उपदेश स्याद्वादरूप समझना ही सम्यग्ज्ञान है, और सर्वथा एकांत वह मिथ्यात्व है। __अब यहाँ प्रश्न होता है कि वर्णादिके साथ जीवका तादात्म्यलक्षण संबंध क्यों नहीं है ? उसके उत्तररूप गाथाकहते हैं: संसारी जीवके वर्ण आदिक, भाव हैं संसार में। संसारसे परिमुक्तके नहिं, भाव को वर्णादिके।। ६१।। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy