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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार ११० सर्वद्रव्येभ्योऽधिकत्वेन प्रतीयमानत्वादग्रेरुष्णगुणेनेव सह तादात्म्यलक्षणसम्बन्धाभावात् न निश्चयेन वर्णादिपुद्गलपरिणामाः सन्ति। कथं तर्हि व्यवहारोऽविरोधक इति चेत्पंथे मुस्संतं पस्सिदूण लोगा भणंति ववहारी। मुस्सदि एसो पंथो ण य पंथो मुस्सदे कोई।।५८ ।। तह जीवे कम्माणं णोकम्माणं च पस्सिदुं वण्णं। जीवस्स एस वण्णो जिणेहिं ववहारदो उत्तो।। ५९ ।। गंधरसफासरूवा देहो संठाणमाइया जे य। सव्वे ववहारस्स य णिच्छयदण्हू ववदिसंति।। ६० ।। पथि मुष्यमाणं दृष्ट्वा लोका भणन्ति व्यवहारिणः। मुष्यते एष पन्था न च पन्था मुष्यते कश्चित्।।५८ ।। सर्व द्रव्योंसे अधिकपनेसे (--परिपूर्णपनेसे) प्रतीत होता है; इसलिये, जैसा अग्निका उष्णता के साथ तादात्म्यस्वरूप संबंध है वैसा वर्णादिके साथ आत्माका संबंध नहीं है, इसलिये निश्चयसे वर्णादिक पुद्गलपरिणाम आत्माके नहीं हैं। अब यहाँ प्रश्न होता है कि इसप्रकार तो व्यवहारनय और निश्चयनयका विरोध आता है; अविरोध कैसे कहा जा सकता है ? इसका उत्तर दृष्टांत द्वारा तीन गाथाओंमें कहते हैं: देखा लुटाते पंथमें को, 'पंथ ये लुटात है'जनगण कहे व्यवहारसे, नहिं पंथ को लुटात है।। ५८।। त्यों वर्ण देखा जीवमें इन कर्म अरु नोकर्मका। जिनवर कहे व्यवहारसे , 'यह वर्ण है इस जीवका'।। ५९ ।। त्यों गंध, रस, रूप, स्पर्श, तन, संस्थान इत्यादिक सबै। भूतार्थ द्रष्टा पुरुषने, व्यवहारनयसे वर्णये।।६०।। गाथार्थ:- [ पथि मुष्यमाणं ] जैसे मार्गमें जाते हुए व्यक्तिको लुटता हुआ [ दृष्ट्वा ] देखकर [ एषः पन्था] यह मार्ग [ मृष्यते] लुटता है' इसप्रकार [ व्यवहारिणः लोकाः ] व्यवहारीजन [ भणन्ति ] कहते हैं; किन्तु परमार्थसे विचार किया जाये तो [कश्चित् पन्था ] कोई मार्ग तो [ न च मुष्यते] नहीं लुटता है; Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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