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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates समयसार १०४ स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यत्स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्रं रूपं तन्नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्। यदौदारिकं वैक्रियिकमाहारकं तैजसं कार्मणं वा शरीरं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यत्समचतुरस्रं न्यग्रोधपरिमण्डलं स्वाति कुब्जं वामनं हुण्डं वा संस्थानं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यद्वजर्षभनाराचं वज्रनाराचं नाराचमर्धनाराचं कीलिका असम्प्राप्तासृपाटिका वा संहननं तत्सर्वमपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। यः प्रीतिरूपो रागः स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य , पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। योऽप्रीतिरूपो द्वेष: स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेभिन्नत्वात्। यस्तत्त्वाप्रतिपत्तिरूपो मोह: स सर्वोऽपि नास्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्य-परिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। ये मिथ्यात्वाविरति-कषाययोगलक्षणा: प्रत्ययास्ते सर्वेऽपि न सन्ति जीवस्य, पुद्गलद्रव्यपरिणाममयत्वे सत्यनुभूतेर्भिन्नत्वात्। वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यका परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ३। जो चिकना, रूखा, ठण्डा, गर्म, भारी, हलका, कोमल अथवा कठोर स्पर्श है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है ।४। जो स्पर्शादिसामान्यपरिणाममात्र रूप है वह जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ५। जो औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस अथवा कार्मण शरीर है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ६। जो समचतुरस्त्र , न्यग्रोधपरिमंडल, स्वाति, कुब्जक, वामन अथवा हुंडक संस्थान हैं वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पदगलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है । ७। जो वज्रर्षभनाराच, वज्रनाराच, नाराच , अर्धनाराच, कीलिका अथवा असंप्राप्तासृपाटिका संहनन है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ८। जो प्रीतिरूप राग है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गल –परिणाममय है इसलिये ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ९। जो अप्रीतिरूप द्वेष है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे ( अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १०। जो यथार्थ तत्त्वकी अप्रतिपत्तिरूप (अप्राप्तिरूप) मोह है वह सर्व ही जीवका नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। ११। मिथ्यात्व , अविरति, कषाय और योग जिसका लक्षण हैं ऐसे जो प्रत्यय ( आस्रव) वह सर्व ही जीवके नहीं है क्योंकि वह पुद्गलद्रव्यके परिणाममय होनेसे (अपनी) अनुभूतिसे भिन्न है। १२। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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