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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates जीव-अजीव अधिकार केवलशब्दवेदनापरिणामापन्नत्वेन शब्दाश्रवणात्, सकलज्ञेयज्ञायकतादात्म्यस्य निषेधाच्छब्दपरिच्छेदपरिणतत्वेऽपि स्वयं शब्दरूपेणापरिणमनाचाशब्दः। द्रव्यान्तरारब्धशरीरसंस्थानेनैव संस्थान इति निर्देष्टुमशक्यत्वात्, नियतस्वभावेनानियतसंस्थानानन्तशरीरवर्तित्वात्, संस्थाननामकर्मविपाकस्य पुद्गलेषु निर्दिश्यमानत्वात्, प्रतिविशिष्टसंस्थानपरिणतसमस्तवस्तुतत्त्वसंवलितसहजसंवेदनशक्तित्वेऽपि स्वयमखिललोकसंवलनशून्योपजायमाननिर्मलानुभूतितयात्यन्तमसंस्थानत्वाचानिर्दिष्टसंस्थानः। षड्द्रव्यात्मक लोका-ज्ज्ञेयाव्य क्तादन्यत्वात्, कषायचक्राद्भावकाव्यक्तादन्यत्वात्, चित्सामान्यनिमग्नसमस्तव्यक्तित्वात्, क्षणिकव्यक्तिमात्राभावात्, व्यक्ताव्यक्तविमिश्रप्रतिभा-सेऽपि व्यक्तास्पर्शत्वात्, स्वयमेव हि बहिरन्तः स्फुटमनुभूयमानत्वेऽपि व्यक्तोपेक्षणेन प्रद्योत मानत्वाचाव्यक्तः। होनेसे वह केवल एक शब्दवेदनापरिणामको प्राप्त होकर शब्द नहीं सुनता अतः अशब्द है। ५। (उसे समस्त ज्ञेयोंका ज्ञान होता है परंतु) सकल ज्ञेयज्ञायकके तादात्म्यका निषेध होनेसे शब्दके ज्ञानरूप परिणमित होनेपर भी स्वयं शब्दरूप नहीं परिणमता अतः अशब्द है।६। इस तरह छह प्रकारसे स्पर्शके निषेधसे वह अशब्द है। (अब ‘अनिर्दिष्टसंस्थान' विशेषणको समझाते हैं:-) पुद्गलद्रव्यरचित शरीर के संस्थान (आकार) से जीवको संस्थानवाला नहीं कहा जा सकता इसलिये जीव अनिर्दिष्टसंस्थान है। १। अपने नियत स्वभावसे अनियत संस्थानवाले अनंत शरीरोंमें रहता है इसलिये अनिर्दिष्टसंस्थान है। २। संस्थान नामकर्मका विपाक (फल) पुद्गलोंमें ही कहा जाता है (इसलिये उसके निमित्तसे भी आकार नहीं है) इसलिये अनिर्दिष्टसंस्थान है। ३। भिन्न भिन्न संस्थानरूपसे परिणमित समस्त वस्तुओंके स्वरूप के साथ जिसकी स्वाभाविक संवेदनशक्ति संबंधित (अर्थात् तदाकार) है ऐसा होने पर भी जिसे समस्त लोकके मिलापसे ( –संबंधसे) रहित निर्मल (ज्ञानमात्र) अनुभूति हो रही है ऐसा होने से स्वयं अत्यंतरूपसे संस्थान रहित है इसलिये अनिर्दिष्टसंस्थान है। ४। इसप्रकार चार हेतुओंसे संस्थानका निषेध कहा। (अब ‘अव्यक्त' विशेषणको सिद्ध करते हैं:-) छह द्रव्यस्वरूप लोक जो ज्ञेय है और व्यक्त है उससे जीव अन्य है इसलिये अव्यक्त है। १। कषायोंका समूह जो भावकभाव व्यक्त है उससे जीव अन्य है इसलिये अव्यक्त है। २। चित्सामान्यमें चैतन्यकी समस्त व्यक्तियाँ निमग्न ( अंतर्भूत) हैं इसलिये अव्यक्त है। ३। क्षणिक व्यक्तिमात्र नहीं है इसलिये अव्यक्त है। ४। व्यक्तता तथा अव्यक्तता एकमेक मिश्रितरूपसे प्रतिभासित होनेपर भी वह केवल व्यक्तता को ही स्पर्श नहीं करता इसलिये अव्यक्त है। ५। स्वयं अपने से ही बाह्याभ्यंतर स्पष्ट अनुभमें आ रहा है तथापि व्यक्तता के प्रतिउदासीनरूपसे प्रकाशमान है इसलिये अव्यक्त है। ६। इसप्रकार छह हेतुओंसे अव्यक्तता सिद्ध की है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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