SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates १३ ' भगवान् कुन्दकुन्दाचार्य के रचे हुवे अनेक शास्त्र हैं; उनमें से थोड़े अभी विद्यमान हैं। त्रिलोकनाथ सर्वज्ञ देव के मुख से प्रवाहित श्रुतामृत की सरिता में से जो अमृत-भाजन भर लिये गये वे वर्तमान में भी अनेक आत्मार्थियों को आत्म- जीवन अर्पण करते हैं। उनके पंचास्तिकाय, प्रवचनसार और समयसार नामके तीन उत्तमोत्तम शास्त्र नाटकत्रय अथवा 'प्राभृतत्रय' कहलाते हैं, इन तीनों परमागमोंमें हजारों शास्त्रोंका सार आ जाता है। इन तीन परमागमों में भी कुन्दकुन्दाचार्य के पश्चात् लिखे हुये अनेक ग्रन्थों के बीज निहित हैं ऐसा सूक्ष्म दृष्टि से अभ्यास करने पर मालूम होता है। पंचास्तिकायमें छह द्रव्यों का और नौ तत्त्वों का स्वरूप संक्षेप में कहा है । प्रवचनसार को ज्ञान, ज्ञेय और चारित्र इसप्रकार तीन अधिकारों में विभाजित किया है। समयसार में नव तत्त्वोंका शुद्धनय की दृष्टि से कथन है। श्री समयसार अलौकिक शास्त्र है। आचार्य भगवान् ने इस जगत के जीवों पर परम करुणा करके इस शास्त्रकी रचना की है। उसमें मोक्षमार्गका यथार्थ स्वरूप जैसा है वैसा कहा गया है, अन्तकाल से परिभ्रमण करते हुवे जीव को जो कुछ समझना बाकी रह गया है वो इस परमागम में समझाया गया है। परम कृपालु आचार्य भगवान् इस शास्त्र को प्रारम्भ करते ही स्वयं ही कहते हैं:- कामभोगबंधनकी कथा सब ने सुनी है, परिचय किया है, अनुभव किया है लेकिन पर से भिन्न एकत्व की प्राप्ति ही केवल दुर्लभ है। उस एकत्व की पर से भिन्न आत्मा की बात मैं इस शास्त्रमें समस्त निज वैभव से [ आगम, युक्ति, परमपरा और अनुभव से ] कहूँगा, इस प्रतीज्ञा के अनुसार आचार्य देव इस शास्त्रमें आत्मा का एकत्व पर द्रव्य से और पर भावोंसे भिन्नता - समझाते हैं। वे कहते हैं कि 'जो आत्मा को अबद्धस्पृष्ट, अनन्य, नियत, • समयसार वन्द्यो विभुर्भुवि न कैरिह कौण्डकुन्दः । कुन्द - प्रभा - प्रणयि - कीर्ति - विभूषिताशः।। यश्चारु–चारण-कराम्बुजचञ्चरीक - श्चक्रे श्रुतस्य भरते प्रयतः प्रतिष्टाम्।। [ चन्द्रगिरि पर्वतका शिलालेख ] कुन्दपुष्पकी प्रभाको धारण करनेवाली जिनकी कीर्तिके द्वारा दिशाएँ विभूषित हुई हैं, जो चारणोंके - चारणऋद्धिधारी महामुनियोंके - सुन्दर हस्तकमलोंके भ्रमर थे और जिस पवित्रात्माने भरतक्षत्रमें श्रुतकी प्रतिष्ठा की है, वे विभु कुन्दकुन्द इस पृथ्वी पर किसके द्वारा वन्द्य नहीं हैं ? अर्थः .. कोण्डकुन्दो यतीन्द्रः ।। रजोभिरस्पृष्टतमत्वमन्तर्बाह्येऽपि संव्यञ्जयितुं यतीशः । रजःपदं भूमितलं विहाय चचार मन्ये चतुरंगुलं सः ।। ooooooooo [ विन्ध्यगिरि शिलालेख ] अर्थः- यतीश्वर [ श्री कुन्दकुन्दस्वामी ] रजः स्थानको - - - भूमितलको - छोड़कर चार अंगुल ऊपर आकाशमें चलते थे, उससे मैं यह समझता हूँ कि वे अंतरङ्ग तथा बहिरङ्ग रजसे [ अपना ] अत्यन्त अस्पृष्टत्व व्यक्त करते थे [ - वे अंतरङ्गमें रागादिमलसे और बाह्यमें धूल से असपृष्ट थे ] | Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy