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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग यतो हि द्रव्यान्तरस्वभावभाविनोऽन्यानखिलानपि भावान् भगवज्ज्ञातृद्रव्यं स्वस्वभावभावाव्याप्यतया परत्वेन ज्ञात्वा प्रत्याचष्टे, ततो य एव पूर्वं जानाति स एव पश्चात्प्रत्याचष्टे, न पुनरन्य इत्यात्मनि निश्चित्य प्रत्याख्यानसमये प्रत्याख्येयोपाधिमात्रप्रवर्तितकर्तृत्वव्यपदेशत्वेऽपि परमार्थेनाव्यपदेश्यज्ञानस्वभावादप्रच्यवनात् प्रत्याख्यानं ज्ञानमेवेत्यनुभवनीयम्। अथ ज्ञातुः प्रत्याख्याने को दृष्टान्त इत्यत आह जह णाम को वि पुरिसो परदव्वमिणं ति जाणिदुं चयदि। तह सव्वे परभावे णाऊण विमुंचदे णाणी ।। ३५ ।। यथा नाम कोऽपि पुरुष: परद्रव्यमिदमिति ज्ञात्वा त्यजति। तथा सर्वान् परभावान् ज्ञात्वा विमुञ्चति ज्ञानी ।। ३५ ।। ७३ टीका:- यह भगवान ज्ञाता - द्रव्य ( आत्मा ) है वह अन्यद्रव्यके स्वभावसे होने वाले अन्य समस्त परभावोंको, उनके अपने स्वभावभावसे व्याप्त न होनेसे पररूप जानकर, त्याग देता है; इसलिये जो पहले जानता है वही बाद में त्याग करता है, अन्य तो कोई त्याग करनेवाला नहीं है - इसप्रकार आत्मामें निश्चय करके, प्रत्याख्यान के ( त्यागके ) समय प्रत्याख्यान करने योग्य परभावकी उपाधिमात्रसे प्रवर्तमान त्याग के कर्तृत्वका नाम (आत्माको ) होनेपर भी, परमार्थसे देखा जाये तो परभावके त्याग - कर्तृत्वका नाम अपनेको नहीं है, स्वयं तो इस नामसे रहित है क्योंकि ज्ञानस्वभावसे स्वयं छूटा नहीं है, इसलिये प्रत्याख्यान ज्ञान ही है - ऐसा अनुभव करना चाहिये । भावार्थ:-आत्माको परभावके त्यागका कर्तृत्व है वह नाममात्र है। यह स्वयं तो ज्ञानस्वभाव है। परद्रव्यको पर जाना, और फिर परभावका ग्रहण न करना वही त्याग है। इसप्रकार, स्थिर हुआ ज्ञान ही प्रत्याख्यान है, ज्ञान के अतिरिक्त दूसरा कोई भाव नहीं है। अब यहाँ यह प्रश्न होता है कि ज्ञाताका प्रत्याख्यान, ज्ञान ही कहा है तो उसका दृष्टांत क्या है ? उसके उत्तरमें दृष्टांत - दाष्टतरूप गाथा कहते हैं: ये और का है जानकर, परद्रव्यको को नर तजे । त्यों और के हैं जानकर, परभाव ज्ञानी परित्यजे ।। ३५ ।। गाथार्थ:- [ यथा नाम ] जैसे लोकमें [ कः अपि पुरुषः ] कोई पुरुष [ परद्रव्यम् इदम् इति ज्ञात्वा ] परवस्तुको 'यह परवस्तु है' ऐसा जाने तो ऐसा जानकर [ त्यजति ] परवस्तुका त्याग करता है, [ तथा ] उसीप्रकार [ज्ञानी ] ज्ञानी पुरुष [ सर्वान् ] समस्त [ परभावान् ] परद्रव्योंके भावोंको [ ज्ञात्वा ] 'यह परभाव है ' ऐसा जानकर [ विमुञ्चति ] उनको छोड़े देता है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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