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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पूर्वरंग यो हि नाम फलदानसमर्थतया प्रादुर्भूय भावकत्वेन भवन्तमपि दूरत एव तदनुवृत्तेरात्मनो भाव्यस्य व्यावर्तनेन हठान्मोहं न्यक्कृत्योपरतसमस्तभाव्यभावकसङ्करदोषत्वेनैकत्वे टङ्कोत्कीर्णं विश्वस्याप्यस्योपरि तरता प्रत्यक्षोद्योततया नित्यमेवान्तःप्रकाशमानेनानपायिना स्वतःसिद्धेन परमार्थसता भगवता ज्ञानस्वभावेन द्रव्यान्तरस्वभावभाविभ्यः सर्वेभ्यो भावान्तरेभ्यः परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं सञ्चेतयते स खलु जितमोहो जिन इति द्वितीया निश्चयस्तुतिः। ___ एवमेव च मोहपदपरिवर्तनेन रागद्वेषक्रोधमानमायालोभकर्मनोकर्ममनोवचनकायसूत्राण्येकादश पञ्चानां श्रोत्रचक्षुर्धाणरसनस्पर्शनसूत्राणा-मिन्द्रियसूत्रेण पृथग्व्याख्यात- त्वाद्व्याख्येयानि। अनया दिशान्यान्यप्यूह्यानि। अथ भाव्यभावकभावाभावेन टीका:- मोहकर्म फल देनेकी सामर्थ्यसे प्रगट उदयरूप होकर भावकपनेसे प्रगट होता है तथापि तदनुसार जिसकी प्रवृत्ति है ऐसा जो अपना आत्मा-भाव्य, उसको भेदज्ञानके बल द्वारा दूरसे ही अलग करनेसे इसप्रकार बलपूर्वक मोहका तिरस्कार करके, समस्त भाव्यभावक-संकरदोष दूर हो जानेसे एकत्वमें टंकोत्कीर्ण (निश्चल) और ज्ञानस्वभावके द्वारा अन्यद्रव्योंके स्वभावोंसे होनेवाले सर्व अन्यभावोंसे परमार्थतः भिन्न अपने आत्माको जो (मुनि) अनुभव करते हैं वे निश्चयसे जितमोह जिन (जिसने मोहको जीता है) हैं। कैसा है वह ज्ञानस्वभाव ? समस्त लोकके ऊपर तिरता हुआ, प्रत्यक्ष उधोतरूपसे सदा अंतरंगमें प्रकाशमान, अविनाशी, अपनेसे ही सिद्ध और परमार्थरूप ऐसा भगवान ज्ञानस्वभाव है। इसप्रकार भाव्यभावक भावके संकरदोषको दूर करके दूसरी निश्चयस्तुति है। इस गाथासूत्रमें एक मोहका ही नाम लिया है; उसमें 'मोह' पदको बदलकर उसके स्थानपर राग, द्वेष, क्रोध, मान, माया, लोभ, कर्म, नोकर्म, मन, वचन, काय रखकर ग्यारह सूत्र व्याख्यानरूप करना और श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसन, स्पर्शन-इन सत्रोंको इंद्रियसत्रके द्वारा अलग व्याख्यानरूप करना; इसप्रकार सोलह सत्रों को भिन्न भिन्न व्याख्यानरूप करना और इस उपदेशसे अन्यभी विचार लेना। भावार्थ:- भावक मोहके अनुसार प्रवृति करनेसे अपना आत्मा भाव्यरूप होता है उसे भेदज्ञानके बलसे भिन्न अनुभव करनेवाले जितमोह जिन हैं। यहाँ ऐसा आशय है कि श्रेणी चढ़ते हुए मोहका उदय अनुभवमें न रहे और जो अपने बलसे उपशमादि करके आत्मानुभव करता है उसे जितमोह कहा है; यहाँ मोहको जीता है; उसका नाश नहीं हुआ है। पाँच अब , भाव्यभावक भावके अभावसे निश्चयस्तुति कहते हैं :-- Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008303
Book TitleSamaysara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorParmeshthidas Jain
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages664
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, Religion, & Spiritual
File Size3 MB
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