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________________ ४४६] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार भावार्थ :- स्वर्ग में जो इंद्रादि पद व पंरपरा से निर्वाण पद पाँच महाव्रतों को धारण को करने से तथा तपश्वचरण करने से प्राप्त होता है, वह पद मृत्यु के समय में देह कुटुम्बादि से ममता छोड़कर, भय रहित होकर, वीतरागता सहित चार आराधनाओं की शरण ग्रहण करके, कायरता छोड़कर, अपने ज्ञायक स्वभाव का अवलंबन लेकर मरण करने पर सहज सिद्ध हो जाता है, तथा स्वर्गलोक में महर्द्धिक देव हो जाता है । वहाँ से आकर बड़े कुल में उत्पन्न होकर, उत्तम संहनन आदि सामग्री पाकर, दीक्षा धारण कर, रत्नत्रय की पूर्णता को प्राप्त होकर, निर्वाण को चला जाता है। 1 समाधिधारक उत्तम गति में ही जाता है : अनार्तः शान्तिमान्मर्त्यो न तिर्यक् नापि नारक: । धर्मध्यानी परोमर्त्योऽनशनीत्वमरेश्वरः ।।१५।। अर्थ :- जो मरण के समय में आर्त अर्थात् दुःखरुप परिणाम नहीं करता है, तथा शान्तिमान अर्थात् रागद्वेष रहित होकर समभाव रुप परिणाम रखता है, वह पुरुष तिर्यंच व नारकी नहीं होता है । जो धर्मध्यान सहित अनशन व्रत धारण करके मरता है वह स्वर्गलोग में इन्द्र होता है व महर्द्धिक देव होता है, अन्य हीनपर्याय नहीं पाता है - ऐसा नियम है। भावार्थ :- यह उत्तम मरण का अवसर प्राप्त करके आराधना सहित मरण करने का यत्न करना चाहिये। मरण आने पर भयभीत होकर परिग्रह में ममत्व करके आर्त परिणामों से मरकर कुगति में नहीं जाओ। ऐसा अवसर अनन्त भवों में नहीं मिलेगा, और मरण छोड़ेगा नहीं । इसलिये सावधान होकर धर्मध्यान सहित धैर्य धारण करके देह का त्याग करना चाहिये । समस्त तप समाधि के लिये हैं: तप्तस्य तपसश्चापि पालितस्य व्रतस्य च । पठितस्य श्रुतस्यापि फलं मृत्यु समाधिना ।।१६।। अर्थ :- तपों के द्वारा तपने का, व्रतों के पालने का तथा श्रुत के पढ़ने का फल तो समाधि अर्थात् अपने आत्मा की सावधानी सहित मरण करना ही है। भावार्थ :- हे आत्मन् ! तुमने जीवन में बहुत समय तक इन्द्रियों के विषयों की वांछा रहित होकर अनशनादि तप किया है, वह अन्त समय में आहारादि के त्याग पूर्वक, संयम सहित, देह से ममता रहित होकर समाधि मरण करने के लिये किया है। अहिंसा, सत्य अचौर्य, बह्मचर्य, परिग्रह त्याग आदि व्रत धारण किये हैं, वे सभी देहादि परिग्रह में ममता त्यागकर समस्त मन-वचन-काय से आरंभादि का त्यागकर, समस्त शत्रु-मित्रों में बैर - राग छोड़कर, उपसर्ग में धीरज धारण कर, अपने एक ज्ञायक स्वभाव का अवलंबन लेकर समाधिकरण करने के लिये किये हैं । तथा जो समस्त श्रुतज्ञान का पठन किया है वह भी संक्लेश रहित धर्मध्यान सहित होकर, देहादि से भिन्न अपने स्वरुप को जानकर, भयरहित, समाधिमरण के लिये ही विद्या ही अराधना में काल व्यतीत किया है। Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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