SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [४२९ ६. स्वयं अपने से ही बाह्याभ्यन्तर स्पष्ट अनुभव में आने पर भी व्यक्तता के प्रति उदासीन रुप से प्रकाशमान है, अत: जीव अव्यक्त है। - समयसार टीका : गाथा ४९ जिनमत की परम्परायें जिनधर्म में यह तो आम्नाय है कि पहिले बड़ा पाप छुड़ाकर फिर छोटा पाप छुड़ाया हैं। इसलिये इस मिथ्यात्व को सप्त व्यसनादिक से भी बड़ा पाप जानकर पहले छुड़ाया है। - मोक्षमार्ग प्रकाशक १९२ ___ जैनधर्म में प्रतिज्ञा न लेने का दण्ड तो है ही नहीं। जैनधर्म में तो ऐसा उपदेश है कि पहले तो तत्त्वज्ञानी हो; जिसका त्याग करे उसका दोष पहिचाने; त्याग करने में जो गुण हो उसे जाने; फिर अपने परिणामों को ठीक करे; वर्तमान परिणामों के ही भरोसे प्रतिज्ञा न कर बैठे; भविष्य में निर्वाह होता जाने तो प्रतिज्ञा करे। तथा शरीर की शक्ति व द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावादिक का विचार करे। इस प्रकार विचार करके फिर प्रतिज्ञा करनी। वह भी ऐसी करनी जिससे प्रतिज्ञा के प्रति अनादर भाव न हो, परिणाम चढ़ते ही रहें। ऐसी जैनधर्म की आम्नाय है। - मो. मा. प्र. २३९ सच्चे धर्म की तो यह आम्नाय है कि जितने अपने रागादि दूर हुए हों उसके अनुसार जिस पद में जो धर्म क्रिया सम्भव हो वह सब अंगीकार करे। यदि अल्प रागादिक मिटे हों तो निचले पद में ही प्रवर्तन करे; परन्तु उच्चपद धारण करके नीची क्रिया न करे। - मो. मा.प्र. २४० देखो तत्त्वविचार की महिमा! तत्त्व विचार रहित देवादिक की प्रतीति करे, बहुत शास्त्रों का अभ्यास करे, व्रतादिक पाले, तपश्चरणादि करे, उसको तो सम्यक्त्व होने का अधिकार नहीं; और तत्त्वविचारवाला इनके बिना भी सम्यक्त्व का अधिकारी होता है। - मो. मा. प्र. २६० जहाँ शुद्धोपयोग न हो सके वहाँ अशुभोपयोग को छोड़कर शुभ में ही प्रवर्तन करना, क्योंकि शुभोपयोग की अपेक्षा अशुभपयोग में अशुद्धता की अधिकता है। तथा पहले अशुभोपयोग छूटकर शुभोपयोग हो, फिर शुभोपयोग छूटकर शुद्धोपयोग हो - ऐसी क्रम परिपाटी है। ___- मो. मा. प्र. २५५ तत्त्व निर्णय न करने में किसी कर्म का दोष है नहीं, तेरा ही दोष है; परन्तु तू स्वयं तो महन्त रहना चाहता है और अपना दोष कर्मादिक को लगाता है, सो जिन आज्ञा माने तो ऐसी अनीति सम्भव नहीं है। - मो. मा. प्र. ३११ स्याद्वाद दृष्टि सहित (नयों और अनुयोगों के ज्ञान सहित ) जैन शास्त्रों का अभ्यास करने से अपना कल्याण होता है। - मो. मा. प्र. ३०१ जिनमत में तो एक रागादि मिटाने का प्रयोजन है; इसलिये कहीं बहुत रागादि छुड़ाकर थोड़े रागादि कराने के प्रयोजन का पोषण किया है, कहीं सर्व रागादि मिटाने के प्रयोजन का पोषण किया है; परन्तु रागादि बढ़ाने का प्रयोजन कहीं नहीं है, इसलिये जिनमत का सर्व कथन निर्दोष है। -मो. मा. प्र.३०३ स्यात्पद की सापेक्षता सहित सम्यग्ज्ञान द्वारा जो जीव जिनवचनों में रमते हैं, वे जीव शीघ्र ही शुद्धात्म स्वरुप को प्राप्त होते हैं। - मो. मा. प्र.३०४ जिनमत में यह परिपाटी है कि पहले सम्यक्त्व होता है। फिर व्रत होते हैं; वह सम्यक्त्व स्व-पर का श्रद्धान होने पर होता है और वह श्रद्धान द्रव्यानुयोग का अभ्यास करने पर होता है। इसलिये प्रथम द्रव्यानुयोग के अनुसार श्रद्धान करके सम्यग्दृष्टि हो, पश्चात् चरणानुयोग के अनुसार व्रतादिक धारण करके व्रती हो। - मो. मा. प्र. २९३ Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy