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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार ४०८] इस प्रकार पाँच धारणारुप पिण्डस्थ धर्मध्यान के चिन्तवन में निश्चल अभ्यास करता योगी अल्पकाल में संसार का अभाव कर देता है। ऐसे इस पिण्डस्थ धर्मध्यान में महाकान्ति युक्त जगत को आह्लादित करता हुआ सर्वज्ञ के समान मेरु के शिखर के ऊपर सिंहासन पर विराजमान समस्त देवों द्वारा वंदनीय आत्मा का निश्चल चिन्तवन करता हुआ जिनागमरुप महासमुद्र का पारगामी हो जाता है। इस ध्यान के ही प्रभाव से दुष्टों द्वारा की गई विद्या, मण्डल, मंत्र, यंत्रादि क्रूर क्रिया का नाश हो जाता है; सिंह, सर्प, शार्दूल , व्याघ्र , गेंडा, हाथी इत्यादि क्रूरजीव शांत होकर निःसार हो जाते हैं; भूत, राक्षस, पिशाच, ग्रह, शाकिनी आदि दुष्ट देवों की क्रूर वासना का अभाव हो जाता है। इस प्रकार पिण्डस्थ धर्मध्यान के स्वरुप का वर्णन किया है। पदस्थ धर्मध्यान (२) : अब पदस्थ धर्मध्यान के स्वरुप का वर्णन करते हैं। जो पुराने आचार्यों द्वारा प्रसिद्ध सिद्धांत मे मन्त्रपद हैं, उनका ध्यान करना वह पदस्थध्यान है। अनादि सिद्धान्त में प्रसिद्ध समस्त शब्द रचना की जन्मभूमि, जगत के वंदने योग्य वर्णमातृका का ध्यान करना। नाभि में एक सोलह पांखुड़ियोंवाले कमल का विचार करो। उसके प्रत्येक पत्ते पर सोलह स्वरों की पंक्ति भ्रमण करती हुई विचार करो - अ आ इ ई उ ऊ ऋ ऋ लु लु ए ऐ ओ औ अं अः- इन सोलह स्वरों की पंक्ति का विचार करना। ___ अपने हृदय स्थान में चौबीस पांखुड़ियों वाले कमल का विचार करना। उसकी कर्णिका सहित पच्चीस स्थानों में पाँच वर्ग के पच्चीस अक्षर - क ख ग घ ङ च छ ज झ ञ, ट ठ ड ढ ण, त थ द ध न, प फ ब भ म – इनका विचार करना। मुख में आठ पांखुड़ीवालें कमल का विचार करना। उसमें य र ल व, श ष स ह - ये आठ अक्षर प्रदक्षिणारुप परिभ्रमण करते हुए विचार करना। इस प्रकार अनादि प्रसिद्ध वर्णमातृका का स्मरण करता हुआ ज्ञानी श्रुतज्ञान समुद्र का पारगामी हो जाता है। इस वर्णमातृका के ध्यान से नष्ट हुई वस्तु का ज्ञान हो जाता है; क्षय रोग, अरूचि रोग, मंदाग्नि, कोढ़, उदर रोग, कासश्वास, आदि रोगों को जीत लेता है; तथा असदृश वचनकला व महन्तपुरुषों से पूज्यता पाकर उत्तमगति को प्राप्त होता है। परमागम में कहे गये पैंतीस अक्षरों का मन्त्र जपना णमो अरहन्ताणं, णमो सिद्धाणं, णमो आइरियाणं, णमो उवज्झायाणं, णमो लोए सव्व साहूणं: “ अर्हत्सिद्धाचार्योपाध्यायसर्वसाधुभ्यो नमः” इस प्रकार सोलह अक्षरोंवाले मन्त्रपद का ध्यान करना; " णमो अरहन्ताणं" ऐसे सात अक्षरों के मंत्र का जाप करना; “अरहंतसिद्ध” ऐसे छह अक्षरों के मन्त्र का; “असिआउसा" ऐसे पाँच अक्षरों के मंत्र का “ णमो सिद्धाणं" ऐसे पाँच अक्षरों के मंत्र का, “नमः सिद्धेभ्यः" ऐसे पाँच अक्षरों के मंत्र का; “अरहंत" ऐसे चार अक्षरों के मंत्र का; “सिद्ध" इन दो अक्षरों के मंत्र का; “ऊँ" इस एक अक्षर के मंत्र का; 'अं' इस एक अक्षर के मंत्र का ध्यान करना, परमेष्ठी के वाचक अनेक मंत्रों का परम गुरुओं के उपदेश से ध्यान करना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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