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________________ ३५० ] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार जो दिन निरन्तर व्यतीत हो रहे हैं, वे आयु के बड़े-बड़े खण्ड प्रत्यक्ष टूटते चले जा रहे हैं। सागरों की जिनकी आयु, अणिमा आदि हजारों ऋद्धियों के धारक, जिनकी असंख्यात देव सेवा करते हैं उनका भी विनाश हो जाता है तो कीट समान मनुष्य कैसे स्थिर रहेगा ? जिस हवा से पहाड़ उड़ गये उसमें तिनकों का समूह कैसे ठहर सकेगा? ऐसा चिन्तवन करके इष्ट का वियोग होने पर आर्तध्यान कभी नहीं करना चाहिये। इस प्रकार इष्ट वियोगज आर्तध्यान का और इसके जीतने की भावना का वर्णन किया । २ । रोगजनित आर्तध्यान ( ३ ) : अब रोगजनित तीसरे आर्तध्यान का स्वरुप कहते हैं । इस शरीर में रोग उत्पन्न होते हैं तब रोग के नाश होने के लिये बारम्बार संक्लेशरूप परिणाम होना वह रोगजनित आर्तध्यान है। खांसी, श्वास, ज्वर, वात, पित्त, कफ, पेटदर्द, सिरदर्द, नेत्रदर्द, कानदर्द, दाँतदर्द, जलोदर, कठोदर, सफोदर, कोढ़, खाज, दाद, संग्रहिणी, अतिसार इत्यादि प्राणों का नाश करनेवाले, घोर वेदना देनेवाले रोगों के होने पर घोर दुःख उत्पन्न होता है। रोगों की तकलीफ से एक श्वास लेना भी बड़े कष्ट से होता है, बैठेखड़े-सोते हुए कहीं भी परिणामों में थिरता नहीं होने देता है। ऐसे समय में परिणामों में बड़े दुःख से उत्पन्न हुआ पीड़ा चिन्तवन नाम का आर्तध्यान होता है। यह रोगजनित वेदना ऐसी है जिससे बड़े-बड़े कोटिभट, महाशूरवीर, अनेक शस्त्रों के सामने भी मुकाबले में डटे रहनेवाले शूरवीरों का भी धैर्य चलायमान हो जाता है, बड़े-बड़े त्यागी-तपस्वियों-परीषह सहनेवालों का भी धैर्य चलायमान हो जाता है। ऐसे रोग की वेदना जनित आर्तध्यान को जीतने की सामर्थ्य बड़ी दुर्द्धर है। रोगजनित वेदना में आर्त परिणामों का जीतना भगवान जिनेन्द्र की शरण से ही होता जानो। बड़े की शरण बिना ऐसी दुर्द्धर वेदना में धैर्य नहीं रहता है। इसलिये ज्ञानी पुरुष सर्वज्ञ की शरण ग्रहण करके विचार करते हैं- हे आत्मन् ! यह जो भयानक घोर असाताकर्म का उदय आया है उसमें यदि विलाप करोगे तो दुःख कौन दूर कर देगा ? तड़फड़ाहट करोगे तो भी यह वेदना छोड़नेवाली नहीं है। धीर होकर भोगोगे तो भोगनी होगी, होकर भोगोगे तो भोगनी होगी । रोग तो देह में आया है सो वह देह को मार सकेगा, तुम्हारे आत्मा को नहीं मार सकेगा। तुम्हारा आत्मा तो ज्ञायक स्वभाव अविनाशी है, परन्तु इस देह के फन्दे में आकर फंस गया है, अतः अब धैर्य धारण करके कायरता छोड़ो। कायर इस संसार में करोड़ों रोगों का उदय तथा ताड़न - मारण आदि अनेक त्रास नरक में भोगे हैं, तिर्यचगति में प्रत्यक्ष रोगों से उत्पन्न हुए घोर दुःख देखते ही हो। और से तो छूटकर भाग भी जाओ, परन्तु कर्म से नहीं भाग सकोगे। इस कर्ममय शरीर ने तुम्हारे एकएक प्रदेश को अनन्त कर्म परमाणुओं से बांधकर अपने आधीन कर रखा है, वह कैसे भागने देगा ? यह जो कर्म है, वह तो मरण होने पर भी नहीं छोड़ेगा । मरण होने पर शरीर छूटेगा, जहाँ पर भी अन्य शरीर धारण करोगे वहाँ पर भी तो कर्म तो साथ ही रहेगा। रोग की वेदना में जो धैर्य धारण करते हैं, उनके कर्मों की बहुत निर्जरा होती है। Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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