SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 381
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३३८] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [ श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार उसमें कितने ही उपकार तो मुनियों के मुनि ही करते हैं : उठाना, बैठाना, सुलाना, कलोट लिवाना, हाथ पैर आदि पसारना, समेटना, उपदेश देना, कफ मलादि दूर करना, धैर्य धारण कराना मुनियों का मुनि ही करते हैं। कितने ही उपकार प्रासुक औषधि, आहार पानी, उपकरण आदि गृहस्थ धर्मात्मा श्रावक से ही बनते हैं। गृहस्थ साधुओं की वैयावृत्य करता है, तथा श्राविका अर्जिका की वैयावृत्य करती है। करुणा बुद्धि से दुखित रोगी, निःसंतान, बाल, वृद्ध, पराधीन, जेल में पड़े लोगों का उपकार करना चाहिये। माता-पिता, विद्यागुरु, स्वामी, मित्र, आदि का उपकार स्मरण करके कृतघ्नता छोड़कर सेवा, सम्मान, दान, प्रशंसा आदि द्वारा आदर-सम्मान करके, सुखी करे, दुःखी होंय तो उनका दुःख दूर करे अपनी शक्ति अनुसार दान-सम्मान करके, वैयावृत्य करे, उसके वैयावृत्य तप से बहुत निर्जरा होती है। वैयावृत्य से ग्लानि का अभाव हो जाता है, प्रवचन में वात्सल्यता होती है। आचार्य आदि अनेक वात्सल्य के स्थान हैं उनमें से किसी की भी वैयावृत्य बन जाय उसी की वैयावृत्य करके सभी प्रकार से कल्याण को प्राप्त हो जाता है । ३ । स्वाध्याय तप : अब स्वाध्याय तप का वर्णन करते हैं। स्वाध्याय के पाँच भेद हैंवाचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय, धर्मोपदेश । वाचना स्वाध्याय : निर्दोष ग्रन्थों का पाठ, अर्थ, तथा पाठ और अर्थ दोनों को पात्र मनुष्यों को पढ़ाना, बतलाना, समझाना वह वाचना स्वाध्याय है । परमागम का शब्द पढ़ाने के समान, अर्थ समझाने के समान कोई अपना तथा पर का उपकार नहीं है। परमागम को पढ़ाकर योग्य शिष्य को प्रवीण कर देना धर्म का स्तंभ खड़ा कर देने के समान है। जैनधर्म तो शास्त्र ज्ञान से ही है । प्रतिमा तथा मंदिर तो मुख से बोलते नहीं हैं। साक्षात् बोलता हुआ देव के समान हित में प्रेरणा करनेवाला तथा अहित से रक्षा करनेवाला भगवान सर्वज्ञ का परमागम ही है। अतः शास्त्र पढ़ाने में, पढ़ने में परम उद्यमी रहना। पृच्छना स्वाध्याय : अपना संशय दूर करने के लिये बहुज्ञानी से विनय पूर्वक प्रश्न करना चाहिये क्योंकि प्रश्न से संशय दूर किये बिना ज्ञान सम्यक् प्रकट नहीं होता है । अथवा आपने आगम के शब्द का जो अर्थ समझ रखा हो वह बहुज्ञानियों के मुख से सुन ले तो बहुत पक्का ज्ञान हो जाता है, ज्ञान की शिथिलता दूर हो जाती है। अतः बहुज्ञानियों से प्रश्न करना चाहिये। अथवा आपने संक्षेप में समझा हो उसे विस्तार से जानने के लिये बड़ी विनय से सम्यग्ज्ञानियों से प्रश्न करना चाहिये। अपनी उच्चता या पण्डितपना दिखाने के लिये या दूसरे का तिरस्कार करने के लिये तथा हँसी करने के लिये सम्यग्दृष्टि प्रश्न नहीं करता है। अर्थ के सम्बन्ध में प्रश्न करता है, शब्द व अर्थ दोनों के सम्बन्ध में प्रश्न करता है फिर निर्णय करता है, वह पृच्छना स्वाध्याय है । अनुप्रेक्षा स्वाध्याय : परमागम के जाने हुये शब्द और अर्थ को अपने हृदय में धारण करके बांरबार मन से अभ्यास करना, चिन्तवन करना, आगम में आज मैनें जो पढ़ा सुना है उसमें से ये Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy