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________________ ३३०] Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार इंद्रियों के उपशमन के लिये भगवान ने उपवास करना कहा है। इसलिये इन्द्रियों को जीतने वाला मुनि भोजन करते हुए भी उपवास करनेवाला जानना । जो उपवास करते हुए भी इंन्द्रियों को विषयों से नहीं रोकता है, आरंभ करता है, कषायरुप प्रवर्तता है, उसका अनशन तप निष्फल होता है, कर्मो की निर्जरा नहीं करता है । इस प्रकार अनशन तप का स्वरुप कहा है। जिस प्रकार से वात-पित्त-कफादि विकार को प्राप्त नहीं हो, रोग शांत हो, धर्म में उत्साह बढ़ता रहे उस तरह अपने परिणामों की विशुद्धि की वृद्धि चाहते हुये देश के अनुकूल, काल के अनुकूल, आहार- पानी की योग्यता के अनुकूल, कुटुम्ब आदि की सहायता के अनुकूल, संहनन के अनुसार जैसे शरीर विकार को प्राप्त नहीं हो वैसे श्रावकों को भी अपने शक्ति के अनुसार अनशन तप अंगीकार करना श्रेष्ठ है । १ । अवमौदर्य तप : अवमौदर्य तप का स्वरुप इस प्रकार जाननाः अवम् अर्थात् कुछ कम, उदर में अथात् जिसमें पूर्ण उदर से कुछ कम भोजन किया जाता है, उसे अवमौदर्य तप कहते हैं। जितने भोजन से उदर पूर्ण भरता उतने से ऊन अर्थात् कुछ कम भोजन करना वह ऊनोदर या अवमौदर्य तप है। अवमौदर्य तप से इंन्द्रियों का संयम होता है, भोजन की गृद्धता का अभाव होता है। अल्प आहार करने से वात-पित्त-कफादि प्रकोप को प्राप्त नहीं होते हैं; रोंगों का उपशम होता है, निद्रा - आलस पर विजय होती है; स्वाध्याय में, सामायिक में, कायोत्सर्ग में, ध्यान में खेद नहीं होता है, सुख से ध्यान, स्वाध्याय आदि आवश्यक होते हैं। अवमौदर्य तप करने से उपवास का खेद, गर्मी आदि नहीं व्यापती हैं, उपवास सुख से हो जाता है। यदि बहुत भोजन कर लेता है तो ध्यान, कायोत्सर्ग आदि आवश्यक सुख से हो जाता है। यदि बहुत भोजन कर लेता है तो ध्यान, कायोत्सर्ग आदि आवश्यक सुख से नहीं होते हैं, आलस-निद्रा प्रबल हो जाते हैं, प्यास बहुत लगती है, गर्मी की पीड़ा सताती है। इसलिये इन्द्रियों की लालसा आदि घटाने के लिये, मन को रोकने के लिये, ज्ञानी मुनि तो आधा भोजन, चतुर्थभाग भोजन, क्रम एक–एक दो-दो ग्रास घटाते हुए, एक ग्रास मात्र पर्यन्त अवमौदर्यतप के भेद करते हैं, किन्तु जो मिष्ठ भोजन के लाभ लिये, कीर्तिप्रशंसा पाने के लिये अल्प भोजन करते हैं, वह अवमौदर्य तप नहीं है । अवमौदर्य तप तो भोजन में लालसा घटाने के लिये किया जाता हैं। गृहस्थ श्रावक के लिये भी अन्तराय कर्म के क्षयोपशम के अनुसार प्राप्त हुए भोजन में संतोष करके, भोजन की लालसा छोड़कर, इच्छा के निरोध के लिये अवमौदर्य तप करना श्रेष्ठ है । २ । वृत्ति परिसंख्यान तप : वृत्ति परिसंख्यान तप मुनिराजों के होता है, उसका स्वरुप कहते हैं । मुनिराज भोजन को जाते समय प्रतिज्ञा करते हैं कि आज एक घर में ही जाऊँगा, या दो, तीन, पांच, सात घरों का प्रमाण करके जाते हैं; आज सीधे मार्ग में ही मिलेगा तो, वक्र मार्ग में मिलेगा तो, ऐसा दातार होगा तो, ऐसा भोजन होगा तो, ऐसे पात्र में होगा तो, ऐसी विधि से मिलेगा तो भोजन ग्रहण करूँगा, अन्य प्रकार से नहीं करूँगा । ऐसी कठिन - कठिन प्रतिज्ञा लेकर जो भोजन के लिये Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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