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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार [३०५ जो संयम को प्राप्त करने के बाद उसे छोड़ देता है, बिगाड़ देता है उसको अनन्तकाल तक निगोद में परिभ्रमण, त्रस-स्थावरों में भ्रमण करना पड़ता है, सुगति नहीं मिलती है। संयम प्राप्त करके उसे बिगाड़ने के समान बड़ा अनर्थ दूसरा नहीं है। विषयों का लोभी होकर जो संयम को बिगाड़ता है वह एक कौड़ी में चिन्तामणि रत्न बेच देनेवाले व ईधन के लिये कल्पवृक्ष को काटनेवाले के समान है। विषयों का सुख तो सुख ही नहीं है, वह तो सुखाभास है, क्षण भंगुर है, नरकों के घोर दुःखों की प्राप्ति का कारण है। किंपाक फल के समान जिह्वा का स्पर्शमात्र ही मीठा लगता है पश्चात् घोर दुःख, महादाह, संताप देकर मरण को प्राप्त कराता है; उसी प्रकार भोग भी किंचित्काल मात्र को अज्ञानी जीवों को भ्रम से सुख जैसा लगता है, पश्चात् तो अनन्तकाल तक अनन्त भवों में घोर दुःख ही भोगने पड़ते हैं। इसलिये संयम की परम रक्षा करो। पाँच इंद्रियों के विषयों के भोग छोड़ने से संयम होता है. कषायों का नाश करने से संयम होता र तप को धारण करने से संयम होता है. रसों का त्याग करने से संयम होता है. मन के विकल्प जाल का प्रसार रोकने से संयम होता है, मन में परिग्रह की लालसा का त्याग करने से संयम होता है, महान कायक्लेशों को सहने से संयम है। उपवासादि अनशन तप करने से संयम होता है। त्रस-स्थावर जीवों की रक्षा करना ही संयम है। मन के विकल्पों को रोकने से तथा प्रमाद से होनेवाली वचनों की प्रवृत्ति को रोकने से संयम होता है, शरीर के अंग-उपांगों के प्रमादी प्रवर्तन को रोकने से संयम होता है, बहुत गमन को रोकने से संयम होता है, दयारूप परिणामों द्वारा संयम होता है, परमार्थ का विचार करने से तथा परमात्मा का ध्यान करने से संयम होता है। संयम से ही सम्यग्दर्शन पुष्ट होता है। संयम ही मोक्ष का मार्ग है। संयम बिना मनुष्यभव शून्य है, गुण रहित है। संयम बिना ही यह जीव दुर्गतियों में गया है। संयम बिना देह का धारण करना, बुद्धि का पा लेना, ज्ञान की आराधना करना, सभी व्यर्थ हैं। संयम बिना दीक्षा धारणा, व्रत धारणा, मूंड मुडावना, नग्न रहना , भेष धारणा - ये सभी वृथा है। ___ संयम दो प्रकार का है : इंद्रिय संयम तथा प्राणी संयम। जिसकी इंद्रियाँ विषयों से नहीं रुकी, छह: काय के जीवों की विराधना नहीं टली उसका बाह्य परीषह सहना, तपश्चरण करना, दीक्षा लेना वृथा है। संसार में दुःखी जीवों का संयम बिना कोई अन्य शरण नहीं है। ज्ञानीजन तो ऐसी भावना भाते हैं - संयम बिना हमारे मनुष्य भव की एक घड़ी भी नहीं व्यतीत हो, संयम बिना आयु निष्फल है। संयम ही इस भव में तथा पर भव में शरण हैं, दुर्गतिरूप सरोवर को सोखने के लिये सूर्य के समान है। संयम से ही संसाररूप विषम बैरी का नाश होता है। संसार परिभ्रमण का नाश संयम के बिना नहीं होता, ऐसा नियम है। जो अंतरंग में कषायों से आत्मा को मलिन नहीं होने देता तथा बाह्य में यत्नाचारी होकर प्रमाद रहित प्रवर्तन करता है उसके संयम होता है। इस प्रकार संयम धर्म का वर्णन किया।६। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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