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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates षष्ठ - सम्यग्दर्शन अधिकार] [३०३ है। अभिमानी मद सहित होने से महामलिन है, उसके शौचधर्म कैसे होगा ? वीतराग सर्वज्ञ के परमागम का अनुभव करके अंतरंग मिथ्यात्व कषायादि मल का धोना वह शौचधर्म है। उत्तम गुणों की अनुमोदना करने से शौचधर्म होता है। परिणामों में उत्तम पुरुषों के गुणों का चितवन करने से आत्मा उज्ज्वल होता है। कषाय मल का अभाव करने से उत्तम शौचधर्म होता है। आत्मा को पाप से लिप्त नहीं होने देना, वह शौचधर्म है।। जो समभाव-संतोषभावरूप जल से तीव्र लोभरूप मल के पुंज को धोता है, भोजन में अतिलम्पटता रहित है। उसके निर्मल शौचधर्म होता है। भोजन का लंपटी अति अधम है, अखाद्य वस्तु भी खा लेता है, हीनाचारी होता है, लज्जा नष्ट हो जाती है। संसार में जिह्वा इंद्रिय व उपस्थ इंद्रिय के वशीभूत हुए जीव अपना स्वरूप भूलकर, नरक-तियँचगति के कारण महानिंद्य परिणामों को प्राप्त हो जाते हैं। संसार में परधन की इच्छा, परस्त्री की वांछा, भोजन की अतिलंपटता ही परिणामों को मलिन करनेवाली है। इनकी वांछा से रहित होकर अपने आत्मा की संसार में पतन से रक्षा करो। आत्मा की मलिनता तो जीव हिंसा से तथा परधन, परस्त्री की वांछा से है। जो परस्त्री, परधन के इच्छुक तथा जीवघात करनेवाले हैं वे करोड़ों तीर्थों में स्नान करो, समस्त तीर्थो की वंदना करो, करोड़ों का दान करो, करोड़ों वर्षों तक तप करो, समस्त शास्त्रों का पठन-पाठन करो तो भी उनके शुचिता कभी नहीं होती है। अन्याय, अनीति तथा अभक्ष्य-भक्षण का फल : अभक्ष्य-भक्षण करनेवालों के व अन्याय के विषय तथा धन भोगनेवालों के परिणाम इतने मलिन होते हैं कि करोड़ों बार धर्म का उपदेश व समस्त सिद्धान्त शास्त्रों की शिक्षा बहुत वर्षों से सुनते रहने पर भी वह कभी हृदय में प्रवेश नहीं करती है। प्रत्यक्ष ही देखते हैं – जिनको पचास वर्ष शास्त्र सुनते हुए हो गये है किन्तु जिन्हें धर्म के स्वरूप का ज्ञान ही नहीं हुआ है, वह सब अन्याय का धन तथा अभक्ष्य-भक्षण का फल है। इसलिये यदि अपनी आत्मा की पवित्रता चाहते हो तो अन्याय का धन मत ग्रहण करो, अभक्ष्य भक्षण नहीं करो, परस्त्री की वांछा नहीं करो। शौचधर्म तो परमात्मा के ध्यान से होता है। अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य तथा परिग्रह के त्याग ते शौचधर्म होता है। ___ जो पाँच पापों में प्रवर्तनेवाले हैं वे सदाकाल मलिन हैं। जो पर के उपकार को लोप करते हैं वे कृतघ्नी सदा ही मलिन हैं। जो गुरुद्रोही, धर्मद्रोही, स्वामीद्रोही, मित्रद्रोही उपकार को लोपने वाले हैं; उनके पाप का संतानक्रम असंख्यात भवों तक करोड़ों तीर्थों में स्नान करने से, दान करने से दूर नहीं होता है। विश्वासघाती सदा ही मलिन है। अतः भगवान के परमागम की आज्ञा के अनुसार शुद्ध सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र के द्वारा आत्मा को पवित्र बनाओ। क्रोधादि कषायों का निग्रह करके उत्तम क्षमादि गुण धारण कर आत्मा को उज्ज्वल करो। समस्त व्यवहार कपट रहित उज्ज्वल करो। परका वैभव, ऐश्वर्य, उज्ज्वल यश, उत्तम विद्या Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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