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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार १६६] अर्थ :- उपवास करने वाला गृहस्थ निरालसी होता हुआ ज्ञान के अभ्यास में तथा धर्मध्यान में तत्पर रहता है। अतितृष्णावान होकर कर्ण इंद्रिय द्वारा धर्मरूप अमृत का स्वयं पान करता है व अन्य भव्य जीवों को धर्मरूप अमृत का पान कराता है। भावार्थ :- उपवास के दिन धर्मकथा स्वयं सुनना तथा अन्य धर्मात्माओं को धर्म श्रवण कराना चाहिये; ज्ञान के अभ्यास में तथा धर्मध्यान में लीन होकर ही उपवास का समय व्यतीत करना चाहिये; आलस्य, निद्रा, आरंभ तथा विकथा द्वारा उपवास का काल व्यतीत नहीं करना चाहिये। अब उपवास तथा प्रोषधोपवास का स्वरूप श्लोक द्वारा कहते हैं : चतुराहारविसर्जनमुपवासः प्रोषधः सकृद्भुक्तिः । ___स प्रोषधोपवासो यदुपोष्यारम्भमाचरति ।।१०९ ।। अर्थ :- अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य - यह चार प्रकार का आहार (कवलाहार) है। इनका त्याग वह उपवास है। धारणा के दिन ( उपवास के पूर्व) में व पारणा के दिन ( उपवास के बाद) में एक बाद भोजन करना उसे प्रोषध कहते हैं। इस प्रकार सोलह प्रहर तक भोजन आदि आरंभ छोड़कर पश्चात् भोजन आदि आरंभ के कार्य करने को प्रोषधोपवास कहते हैं। अब उपवास के पाँच अतिचार कहनेवाला श्लोक कहते हैं : ग्रहणविसर्गास्तरणान्यदृष्टमष्टान्यनादरास्मणे।। यत्प्रोषधोपवासव्यतिलङ्घनपञ्चकं तदिदम् ।।११०।। अर्थ :- प्रोषधोपवास के ये पाँच अतिचार हैं। नेत्रों से देखे बिना तथा कोमल वस्त्र आदि उपकरण से शुद्ध किये बिना पूजा व स्वाध्याय के उपकरण ग्रहण करना १, देखे सोधे बिना ही पूजा तथा स्वाध्याय के उपकरण रख देना व शरीर के अंग हाथ पैरों को पसारना २, देखे सोधे बिना ही सोने के बिस्तर आदि बिछा देना ३, उपवास में अनादर करना , उत्साह रहित होना ४, उपवास के दिन क्रिया, पाठ आदि करना भूल जाना ५। इस प्रकार ये उपवास के पाँच अतिचार टालने योग्य हैं। अब वैयावृत्य नाम का शिक्षाव्रत कहनेवाला श्लोक कहते हैं : दानं वैयावृत्यं धर्माय तपोधनाय गणनिधये। अनपेक्षितोपचारोपक्रियमगृहाय विभवेन ।।१११।। अर्थ :- यहाँ परमागम में आहार दान ही को वैयावृत्य कहते हैं। जिनके तप ही धन है अर्थात् जो इच्छा निरोध आदि तपों को अपना अविनाशी धन जानते हैं वे तपोधन हैं। तप के बिना समस्त कलंक मल रहित आत्मा का शुद्ध स्वभावरूप अविनाशी धन नहीं प्राप्त होता है। जिन्होंने रागादि कषायमल को जला देने वाला तपरूपी धन प्राप्त कर लिया है, तथा संसार में नष्ट करने वाला जड़, अचेतन, बिनाशीक स्वर्ण आदि धन का त्याग कर दिया है, ऐसे तप की निधि, रत्नत्रय रूपी गुणों Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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