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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पंचम - सम्यग्दर्शन अधिकार] [१६१ मैंने जो घोर पाप का बंध किया है, उसका फल नरकों के दुःख तथा तियँच गति के घोर दुःख अनंतकाल भोगना हैं तथा अनंतबार गूंगा, बहरा, अंधा, नीच जाति में, नीच कुल में, महादारिद्र सहित उपजना है। इसलिये अब दुष्टवचनों को बोलकर उत्पन्न किया जो पाप कर्म उसका नाश करने के लिये तथा आगे मेरी दुष्टवचनों में प्रवृत्ति कभी नहीं हो, इसलिये मैं पंच नमस्कार मंत्र की शरण ग्रहण करता हूँ। __चोरी त्याग : अज्ञानभाव से व प्रमाद से पूर्वकाल में मैने जो दूसरों का बिना दिया हुआ धन, गिरा, पड़ा, भूला हुआ धन ग्रहण करने के परिणाम किये, कपट-छल से ठगा तथा जबर होकर दूसरे का धन रखकर वापिस नहीं दिया जिसके लिये स्वयं बहुत संक्लेश किया तथा दूसरे को संक्लेश उत्पन्न कराया इस प्रकार घोर पाप किया। उस पाप का फल नरक-तिर्यंच आदि गतियों में भ्रमण तथा अनंतकाल पर्यंत दारिद्र आदि घोर दुःख होना है। इसलिये चोरी करके उत्पन्न किये जो पापकर्म उनके नाश के लिये तथा आगे भी मेरे बिना दिये हुये पराये धन को ग्रहण करने के परिणाम नहीं हो, इसलिये में पंच नमस्कार मंत्र की शरण ग्रहण करता हूँ। कुशील त्याग : दूसरे की स्त्री को, उसके रूप, आभरण, वस्त्र, हावभाव, विलास को रागभाव से देखने की इच्छा से, तथा राग-भाव से देखकर तथा संगम आदि कर उससे उत्पन्न किये घोर पाप कर्म का फल अनंतकाल तक नरक-तिर्यंच गतियों में परिभ्रमण कर अनेक भवों में हजारों रोग तथा दारिद्र का दुःख भोगना, तथा बहुत काल पर्यन्त कामरूप अग्नि में जलते हुए असंख्यात भवों में कामवेदना से पीड़ित होकर लड़-लड़कर मर जाने का है। इसलिये पर स्त्री की वांछा से उत्पन्न किये पापकर्मों के नाश के लिये तथा आगे मेरा अन्य की स्त्री में अनुराग कभी न हो इसके लिये मैं पंच परम गुरुओं के पंच नमस्कार मंत्र का ध्यान करता हूँ। परिग्रह त्याग : मैं अज्ञानी परिग्रह में बड़ी ममता करके शरीर आदि पुद्गल को अपना मानकर इनमें अपनापन करता रहा। रागादिभाव जो मोहकर्म के उदय से हुए, उन्हें अपने भाव मानकर पर द्रव्यों में बड़ी आसक्ति की; धन-धान्य-कुटुम्ब आदि की वृद्धि को अपनी ही वृद्धि मानी, इनकी हानि को अपनी हानि मानी। अभी भी जमीन, हाट, आजीविका, स्त्री, पुत्र, धन, धान्य, आभरण, वस्त्रादि हजारों वस्तुरूप परिग्रह में मेरा-मेरा करता हूँ। बुद्धि में ऐसी विपरीतता हो रही है कि अपना ज्ञान पर का ज्ञान पाप-पण्य का ज्ञान परलोक का ज्ञान नष्ट हो गया है। प्राण कण्ठ तक आ जायें तो भी ममता नहीं घट रही है। जगत में प्रत्यक्ष देखते हैं कि परिग्रह किसी के साथ गया नहीं हैं, मेरे साथ भी नहीं जायेगा, तो भी प्रतिदिन बढ़ाना ही चाहता रहता हूँ। जब तक मेरा मरण हो तब तक इस परिग्रह में से कुछ भी घट नहीं जाये, इसी प्रकार निरंतर चिंतवन रहा करता है। इस परिग्रह रूप दावाग्नि को संतोषरूप जल से नहीं बुझाना चाहता है। समस्त पापों का मूल एक परिग्रह में मूर्छा है। मुझ अज्ञानी ने इसी के आरंभ में, इसी में ममता धारण करके अनंतकाल में दुर्लभ ऐसा मनुष्यजन्म तथा जिनधर्म पाकर उसे बिगाड़कर अनंत Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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