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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates तृतिय - सम्यग्दर्शन अधिकार] [११३ के लिये खाते हैं वे घोर नरकों के दुःख भोगकर असंख्यात तथा अनंत जन्मों तक अनेक रोग के पात्र होते हैं। मधु , मद्य, मांस, नवनीत (माखन) ये चार महा विकृति - खोटी चीजें भगवान ने परमागम में कही हैं। जो जिनधर्म ग्रहण करता है वह मद्य, मांस, मधु, माखन, इन चार विकृतियों का सबसे पहले परित्याग करता है। इन चार को भगवान ने महा विकृति कहा है। इन चारों का त्याग किये बिना जीव धर्म का उपदेश ग्रहण करने का पात्र ही नहीं होता है। हिंसा त्याग : धर्म है सो अहिंसारूप है, ऐसी जिनेन्द्र की आज्ञा बारम्बार सुनने पर भी जो हिंसा को छोड़ने में असमर्थ हैं, वे त्रसजीवों की हिंसा को तो शीघ्र ही छोड़ दें। हिंसा का त्याग नौ प्रकार से किया जाता है - ___मन से स्वयं हिंसा नहीं करता है १, मन से दूसरे के द्वारा हिंसा नहीं कराता है २, मन से अन्य हिंसा करनेवाले की सराहना नहीं करता है ३, वचन से स्वयं हिंसा नहीं करता है ४, वचन से दूसरे के द्वारा हिंसा नहीं कराता है ५, वचन से अन्य हिंसा करनेवाले की शंसा नहीं करता है ६, काय से स्वयं हिंसा नहीं करता है ७, काय से दूसरे के द्वारा हिंसा नहीं कराता है ८, काय से अन्य हिंसा करनेवाले की अनुमोदना नहीं करता है ९। इस प्रकार मन-वचन-काय द्वारा कृत-कारित-अनुमोदना से हिंसा को छोड़नेवाले के औत्सर्गिक त्याग अर्थात् उत्कृष्ट त्याग होता है। इन नौ प्रकार के बिना जो हिंसा का त्याग होता है उसे आपवादिक त्याग कहते हैं, उसके अनेक भेद हैं। यह अहिंसा धर्म मोक्ष का कारण तथा संसार के समस्त परिभ्रमण के दुःखरूप रोग को मिटाने के लिये अमृत के समान है। इसे प्राप्त करके, अज्ञानी मिथ्यादृष्टियों के अयोग्य आचरण व्यवहार देखकर अपने परिणामों में आकुल नहीं होना चाहिये; क्योंकि संसार में कर्म के प्रेरे सताये अनेक जीव हैं। कोई हिंसक है, तो कोई अभक्ष्यभक्षण करनेवाले हैं, कोई क्रोधी, लोभी, मानी, मायावी, महान आरम्भी, महापरिग्रही, अन्यायमार्गी है। उनकी अनीति देखकर अपने परिणाम नहीं बिगाड़ना चाहिये। कर्म के सताये हुए जीव अपना स्वरूप भूल रहे हैं, हमें तो उन पर साम्यभाव ही रखना चाहिये। यदि कोई यह कहता है - भगवान का कहा हुआ धर्म तो सूक्ष्म है, धर्म के लिये हिंसा होने में दोष नहीं है ? उससे कहते हैं - इस प्रकार धर्ममूढ़ होकर के प्राणियों की हिंसा नहीं करना चाहिये। देव के निमित्त , गुरु का कार्य करने के निमित्त की हुई हिंसा भी शुभ नहीं है; हिंसा तो हर दशा में पाप ही है। धर्म तो दयारूप है। यदि देव-गुरु के कार्य करने के निमित्त हिंसा का आरम्भ ही धर्म हो तो - धर्म हिंसा रहित है - ऐसा जिनेन्द्र का वाक्य असत्य हो जायगा। इसलिये हिंसा को धर्म कभी नहीं श्रद्धान करना-नहीं मानना। Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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