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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ७८] [श्री रत्नकरण्ड श्रावकाचार बतलाकर, मिथ्या लोगों में भ्रम उत्पन्न करके, पांच आदमियों में अपने को महान ज्ञानी बतलाकर, मिथ्या अभिमान कर आगम विरुद्ध अनेक कथन करता हैं; कृतघ्नी होकर जैनशास्त्रों की निन्दा करता है, विशिष्ट ज्ञानियों-बहु-ज्ञानियों की भी निन्दा करता है। खोटे अभिप्राय पूर्वक , पांच आदमियों में मान्यता पाने के लिये, पक्षपात ग्रहण करके , यथार्थ निर्णय किये बिना, हठग्राही, अपनी कल्पना से बनाये हुए, एकांती, भगवान की स्याद्वाद रूप वाणी से विरुद्ध होकर, कलह-विसंवाद-परनिन्दा ही को धर्म मानता रहता है। कितने ही मिथ्यादृष्टि कुछ बाह्य त्याग मात्र करके, स्नान कर भोजन करके, अन्य देव आदि की वंदना का त्याग करके, अपने को कृतकृत्य मानते हुए संसार के जीवों की निन्दा करके अपने को प्रशंसा योग्य मानते हैं। अन्याय से आजीविका करते हुए, हिंसा आदि के आरम्भ में निपुण होकर दूसरे धर्मात्माओं के दोष ढूंढते फिरते हैं। निर्दोष लोगों के दोष विख्यात करके मद में छके हुए घूमते हैं, अपने को ऊँचा मानते हैं, दूसरों को अज्ञानी तथा भ्रष्ट मानते हैं। पापी अपनी प्रशंसा कराकर फूले फिरते हैं, अपने स्वरूप की शुद्धता को नहीं देखते हुए अनेक निंद्य चेष्टायें करते हैं, भोले जीवों को मिथ्या उपदेश देकर एकान्त के हठ को ग्रहण कराते हैं। __कुगुरू-कुदेवों को नमस्कार का त्याग करने से, अन्य देवों की निन्दा करके, सभा में बैठकर मिथ्या भेषधारियों की निन्दा करके, अपने को ही सम्यग्दृष्टि मानते हैं। लोग हमको दृढ़ श्रद्धानी धर्मात्मा मानेंगे, ऐसे अनंतानुबंधी मान के उदय से पर की निन्दा करने से ही अपने को ऊँचा जानते हैं तथा जगत को अधर्मी मानते हैं। हितोपदेश : कुदेव-कुगुरु को नमस्कार तो सभी तिर्यंच नहीं करते हैं, नारकी नहीं करते हैं, भोगभूमि और कुभोगभूमि के जीव भी नहीं करते हैं, तथा सभी देवता भी नहीं पूजते हैं। यदि उन्हें नमस्कार पूजा नहीं करने से ही सम्यग्दृष्टि हो जाते हैं तो सभी नारकी, मनुष्य, तिर्यंच आदि सम्यग्दृष्टि हो जायें, किन्तु ऐसा नहीं है। जगत के समस्त मिथ्यादृष्टि मनुष्य, देव आदि की निन्दा करने से भी सम्यक्त्व नहीं होता है। जगत की निन्दा करनेवाला और पापियों से वैर करनेवाला तो कुगति ही का पात्र होगा। मिथ्यात्व तो जीवों के अनादि से है। सम्यग्दृष्टि तो इन पर भी दया ही करते हैं तथा सभी जीवों के प्रति साम्यभाव ही रखते हैं। सम्यग्दर्शन तो आपा-पर का सत्यश्रद्धान करने से ही होगा और वह सत्यश्रद्धान-ज्ञान तो विनय सहित स्याद्वादरूप परमागम के सेवन से ही होगा। प्रथम - सम्यग्दर्शन अधिकार समाप्त Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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