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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates प्रथम सम्यग्दर्शन अधिकार ] [६१ इस प्रकार अधःप्रवृत्तकरण के परिणामों से चार आवश्यक होते हैं। अधःप्रवृत्तकरण का काल अंतर्मूहूर्त बीत जाने पर अपूर्वकरण होता है । अधःप्रवृत्तकरण के परिणामों से अपूर्वकरण के परिणाम असंख्यातलोक गुणे हैं, सो वे अनेक (नाना) जीवों की अपेक्षा कहे हैं। एक जीव की अपेक्षा एक समय में एक ही परिणाम होता है। एक जीव की अपेक्षा तो जितने समय अपूर्वकरण के अंतर्मुहूर्त के काल के हैं उतने परिणाम हैं। इसी प्रकार अधःप्रवृत्तकरण के भी एक जीव के एक समय में एक परिणाम होता है । नाना (अनेक) जीवों की अपेक्षा एक समय के योग्य असंख्यात परिणाम हैं। वे अपूर्वकरण के परिणाम भी प्रति समय समान वृद्धि सहित बढ़ते रहते हैं। इस अपूर्वकरण के परिणाम नीचे के समयवर्ती परिणामों के समान नहीं होते हैं। प्रथम समय की उत्कृष्ट विशुद्धता से द्वितीय समय की जघन्य विशुद्धता भी अनंत गुणी होती है। यह इस प्रकार का परिणामों का अपूर्वपना है। इसीलिये इस दूसरे करण का नाम अपूर्वकरण है। अपूर्वकरण के प्रथम समय से लगाकर अंतिम समय तक अपने जघन्य से अपना उत्कृष्ट तथा पिछले समय के उत्कृष्ट से अगले समय का जघन्य परिणाम क्रम-क्रम से अनंतगुणी विशुद्धता लिये सर्प की चाल के समान जानना । यहाँ अनुकृष्टि नहीं होती है। अपूर्वकरण के पहले समय से लगाकर जब तक समयक्त्वमोहनीय - मिश्रमोहनीय का पूर्णकाल जिसमें गुण संक्रमण करके मिथ्यात्व को सम्यक्त्व मोहनीय, मिश्रमोहनीयरूप परिणमा लेती है उस काल के अंतिम समय तक गुणश्रेणी निर्जरा १, गुणसंक्रमण २, स्थितिखण्डन ३, अनुभागखण्डन ४, ये चार आवश्यक होते हैं। अधःकरण के प्रथम समय से लगाकर उस गुणसंक्रमण के पूर्ण होने के काल तक स्थितिबंध - अपसरण होता है । यद्यपि प्रायोग्यलब्धि से ही स्थितिबंध - अपसरण प्रारंभ हो जाता है तथापि प्रायोग्य लब्धि वाले जीव को सम्यक्त्व होने का अनवस्थितिपना है, नियम नहीं है। इसलिये उस स्थितिबंध - अपसरण को गिनती में नहीं लिया ( महत्त्व नहीं दिया ) है । स्थितिबंध-अपसरण का काल और स्थिति काण्डकोत्करण का काल, ये दोनों समान ही अन्तर्मुहूर्त मात्र के हैं। पहले जो बांधा था वह सत्ता में कर्म परमाणुओंरूप द्रव्य, उसमें से निकालकर जो द्रव्य गुणश्रेणी में दिया उससे गुणश्रेणी के काल में प्रतिसमय असंख्यातगुणी क्रम से पंक्तिबद्ध जो निर्जरा होती है, उसे गुणश्रेणी निर्जरा कहते हैं । १ । प्रति समय गुणाकार का अनुक्रम से विवक्षित प्रकृति के परमाणुओं का पलट कर अन्य प्रकृति रूप हो जाना, वह गुणसंक्रमण है । २ । पहले बांधी हुई उन सत्ता मे रहने वाली कर्म प्रकृतियों की स्थिती का घटाना वह स्थिति खण्डन है | ३ | पहले बांधी हुई उन सत्ता मे रहने वाली अशुभ कर्म प्रकृतियों का अनुभाग का घटाना वह अनुभाग खण्डन है । ४ । Please inform us of any errors on [email protected]
SR No.008300
Book TitleRatnakarandak Shravakachar
Original Sutra AuthorSamantbhadracharya
AuthorMannulal Jain
PublisherVitrag Vigyan Swadhyay Mandir Trust Ajmer
Publication Year2000
Total Pages527
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Ethics, & Religion
File Size6 MB
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