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________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates चारित्रका मूल है, मुक्तिका कारण है। सर्व भूमिकाके साधकोंको वही एक उपादेय है। हे भव्य जीवों! इस परमात्मतत्त्वका आश्रय करके तुम शुद्ध रत्नत्रय प्रगट करो। इतना न कर सको तो सम्यग्दर्शन तो अवश्य ही करो। वह दशा भी अभूतपूर्व तथा अलौकिक है। इसप्रकार इस परम पवित्र शास्त्रमें मुख्यतः परमात्मतत्त्व और उसके आश्रयसे प्रगट होनेवाली पर्यायोंका वर्णन होने पर भी, साथ-साथ द्रव्यगुणपर्याय, छह द्रव्य, पाँच भाव, व्यवहार-निश्चयनय, व्यवहारचारित्र, सम्यग्दर्शन प्राप्तिमें प्रथम तो अन्य सम्यग्दृष्टि जीवकी देशना ही निमित्त होती है (-मिथ्यादृष्टि जीवको नहीं) ऐसा अबाधित नियम, पंचपरमेष्ठीका स्वरूप, केवलज्ञान-केवलदर्शन, केवलीका इच्छारहितपना आदि अनेक विषयोंका संक्षिप्त निरूपण भी किया गया है। इसप्रकार उपरोक्त प्रयोजनभूत विषयोंको प्रकाशित करनेवाला यह शास्त्र वस्तुस्वरूपका यथार्थ निर्णय करके परमात्मतत्त्वको प्राप्त करनेकी इच्छा रखनेवाले जीवको महान उपकारी है। अन्तःतत्त्वरूप अमृतसागर पर दृष्टि लगाकर ज्ञानानन्दकी तरंगें उछालनेवाले महा मस्त मुनिवरोंके अन्तर्वेदनमेंसे निकले हुए भावोंसे भरा हुआ यह परमागम नन्दनवन समान आह्लादकारी है। मुनिवरोंके हृदयकमलमें विराजमान अन्तःतत्त्वरूप अमृतसागर-परसे तथा शुद्धपर्यायोंरूप अमृतझरने परसे बहता हुआ श्रृतरूप शीतल समीर मानों कि अमृत-सीकरोंसे मुमुक्षुओंके चित्तको परम शीतलीभूत करता है। ऐसा शान्तरसमय परम आध्यात्मिक शास्त्र आज भी विद्यमान है और परमपूज्य गुरुदेव द्वारा उसकी अगाध आध्यात्मिक गहराइयाँ प्रगट होती जा रही हैं यह हमारा महान सद्भाग्य है। पूज्य गुरुदेवको श्री नियमसारके प्रति अपार भक्ति है। वे कहते हैं --- ‘परम पारिणामिक भावको प्रकाशित करनेवाले श्री नियमसार परमागम और उसकी टीकाकी रचना छठवें सातवें गुणस्थानमें झूलते हुए महा समर्थ मुनिवरों द्वारा द्रव्यके साथ पर्यायकी एकता साधते- साधते हो गई है। जैसे शास्त्र और टीका रचे गये हैं वैसा ही स्वसंवेदन वे स्वयं कर रहे थे। परम पारिणामिक भावके अन्तअनुभवको ही उन्होंने शास्त्रमें उतारा है;-- प्रत्येक अक्षर शाश्वत, टंकोत्कीर्ण, परमसत्य। निरपेक्ष कारणशुद्धपर्याय, स्वरूपप्रत्यक्ष सहजज्ञान आदि विषयोंका निरूपण करके तो मुनिवरोंने अध्यात्मकी अनुभवगम्य अत्यन्तात्यन्त सूक्ष्म और गहन बातको इस शास्त्रमें स्पष्ट किया है। सर्वोत्कृष्ट परमागम श्री समयसारमें भी इन विषयोंका इतने स्पष्टरूपसे निरूपण नहीं है। अहो! जिस प्रकार कोई पराक्रमी कहा जानेवाला पुरुष वनमें जाकर सिंहनीका दूध दुहा लाता है, उसीप्रकार आत्मपराक्रमी महा- मुनिवरोंने वनमें बैठे-बैठे अन्तरका अमृत दुहा है। सर्वसंगपरित्यागी निर्गन्थोंने वनमें रहकर सिद्धभगवन्तोंसे बातें की हैं और अनन्त सिद्धभगवन्त किसप्रकार सिद्धिको प्राप्त हुए हैं उसका इतिहास इसमें भर दिया है।' इस शास्त्रमें भगवान कुन्दकुन्दाचार्यदेवकी प्राकृत गाथाओं पर तात्पर्यवृत्ति नामक संस्कृत टीका लिखनेवाले मुनिवर श्री पद्मप्रभमलधारिदेव हैं । वे श्री वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य हैं और विक्रमकी तेरहवीं शताब्दीमें हो गये हैं ऐसा, शिलालेख आदि साधनों द्वारा, संशोधन--कर्ताओंका अनुमान है। ‘परमागमरूपी मकरंद जिनके मुखसे झरता है' और 'पाँच इन्द्रियोंके फैलाव रहित देहमात्र परिगह जिनके था' ऐसे निर्गन्थ मुनिवर श्री पद्मप्रभदेवने भगवान श्री कुन्दकुन्दाचार्यदेवके हृदयमें भरे हुए परम गहन Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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