SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 001: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates उपाय परमात्मतत्त्वका आश्रय है। सम्यग्दर्शनसे लेकर सिद्धि तककी सर्व भूमिकाएँ उसमें समा जाती हैं; परमात्मतत्त्वका जघन्य आश्रय सो सम्यग्दर्शन है; वह आश्रय मध्यम कोटिकी उग्रता धारण करनेपर जीवको देशचारित्र, सकलचारित्र आदि दशाएँ प्रगट होती हैं और पूर्ण आश्रय होनेपर केवलज्ञान तथा सिद्धत्व प्राप्त करके जीव सर्वथा कृतार्थ होता है। इसप्रकार परमात्मतत्त्वका आश्रय ही सम्यग्दर्शन है, वही सम्यग्ज्ञान है, वही सम्यक् चारित्र है; वही सत्यार्थ प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यान, आलोचना, प्रायश्चित्त , सामायिक , भक्ति, आवश्यक, समिति, गुप्ति, संयम, तप, संवर, निर्जरा धर्म-शुक्ल-ध्यान आदि सब कुछ है। ऐसा एक भी मोक्षके कारणरूप भाव नहीं है जो परमात्मतत्त्वके आश्रयसे अन्य हो। परमात्मतत्त्वके आश्रयसे अन्य ऐसे भावोंको---व्यवहारप्रतिक्रमण , व्यवहारप्रत्याख्यान आदि शुभ विकल्परूप भावोंको ---मोक्षमार्ग कहा जाता है वह तो मात्र उपचारसे कहा जाता है। परमात्मतत्त्वके मध्यम कोटिके अपरिपक्व आश्रयके समय उस अपरिपक्वताके कारण साथ- साथ जो अशुद्धिरूप अंश विद्यमान होता है वह अशुद्धिरूप अंश ही व्यवहारप्रतिक्रमणादि अनेकानेक शुभ विकल्पात्मक भावोंरूपसे दिखाई देता है। वह अशुद्धि-अंश वास्तवमें मोक्षमार्ग कैसे हो सकता है? वह तो सचमुच मोक्षमार्गसे विरुद्ध भाव ही है, बन्धभाव ही है--ऐसा तुम समझो। और द्रव्यलिंगी मुनिको जो प्रतिक्रमण, प्रत्याख्यानादि शुभ भाव होते हैं वे भाव तो प्रत्येक जीव अनन्त बार कर चुका है, किन्तु वे भाव उसे मात्र परिभमणका ही कारण हुए हैं क्योंकि परमात्मतत्त्वके आश्रय बिना आत्माका स्वभावपरिणमन अंशतः भी न होनेसे उसे मोक्षमार्गकी प्राप्ति अंशमात्र भी नहीं होती। सर्व जिनेन्द्रोंकी दिव्य ध्वनिका संक्षेप और हमारे स्वसंवेदनका सार यह है कि भयंकर संसार-रोगकी एकमात्र औषधि परमात्मतत्त्वका आश्रय ही है। जब तक जीवकी दृष्टि ध्रुव अचल परमात्मतत्त्व पर न पड़कर क्षणिक भावों पर रहती है तब तक अनन्त उपायोंसे भी उसकी कृतक औपाधिक हिलोरें --- शुभाशुभ विकल्प - --शान्त नहीं होतीं, किन्तु जहाँ उस दृष्टिको परमात्मतत्त्वरूप ध्रुव आलम्बन हाथ लगता है वहाँ उसी क्षण वह जीव (दृष्टि-अपेक्षासे) कृतकृत्यताका अनुभव करता है, (दृष्टिअपेक्षासे) विधि-निषेध विलयको प्राप्त होते हैं, अपूर्व समरसभावका वेदन होता है, निज स्वभावभावरूप परिणमनका प्रारम्भ होता है और कृतक औपाधिक हिलोरें क्रमशः शान्त होती जाती हैं। इस निरंजन निज परमात्मतत्त्वके आश्रयरूप मार्गसे ही सर्व मुमुक्षु भूत कालमें पंचमगतिको प्राप्त हुए हैं, वर्तमानमें हो रहे हैं और भविष्य कालमें होंगे। यह परमात्मतत्त्व सर्व तत्त्वोंमें एक सार है, त्रिकाल-निरावरण, नित्यानन्द-एकस्वरूप है, स्वभाव-अनन्तचतुष्टयसे सनाथ है, सुखसागरका ज्वार है, क्लेशोदधिका किनारा है, * 'मैं ध्रुव शुद्ध आत्मद्रव्यसामान्य हूँ' ---ऐसी सानुभव श्रद्धापरिणतिसे लेकर परिपूर्ण लीनता तककी किसी भी परिणतिको परमात्मतत्त्वका आश्रय, परमात्मतत्त्वका आलम्बन, परमात्मतत्त्वके प्रति झुकाव, परमात्मतत्त्वके प्रति उन्सुखता, परमात्मतत्त्वकी उपलब्धि, परमात्मतत्त्वकी भावना, परमात्मतत्त्वका ध्यान आदि शब्दोंसे कहा जाता है। नि०२ Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008273
Book TitleNiyamsara
Original Sutra AuthorKundkundacharya
AuthorHimmatlal Jethalal Shah
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages400
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy