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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates [मोक्षमार्गप्रकाशक संसारदुःख और उसका मूलकारण (क) कर्मोंकी अपेक्षासे वहाँ सब दुःखोंका मूलकारण मिथ्यादर्शन, अज्ञान और असंयम है। जो दर्शन-मोहके उदयसे हुआ अतत्त्वश्रद्धान मिथ्यादर्शन है, उससे वस्तुस्वरूपकी यथार्थ प्रतीति नहीं हो सकती, अन्यथा प्रतीति होती है। तथा उस मिथ्यादर्शन ही के निमित्तसे क्षयोपशमरूप ज्ञान है वह अज्ञान होरहा है, उससे यथार्थ वस्तुस्वरूपका जानना नहीं होता, अन्यथा जानना होता है। तथा चारित्रमोहके उदयसे हुआ कषायभाव उसका नाम असंयम है, उससे जैसे वस्तुस्वरूप है वैसा नहीं प्रवर्तता, अन्यथा प्रवृत्ति होती है। इसप्रकार ये मिथ्यादर्शनादिक हैं वे ही सर्व दुःखोंका मूल कारण हैं। किस प्रकार ? सो बतलाते हैं : ज्ञानावरण और दर्शनावरणके क्षयोपशमसे होनेवाला दुःख और उससे निवृत्ति मिथ्यादर्शनादिकसे जीवको स्व-पर विवेक नहीं होसकता। स्वयं एक आत्मा और अनन्त पुद्गलपरमाणुमय शरीर; इनके संयोगरूप मनुष्यादि पर्याय उत्पन्न होती है, उसी पर्यायको स्व मानता है। तथा आत्माका ज्ञान-दर्शनादि स्वभाव है उसके द्वारा किंचित जानना-देखना होता है; और कर्मोपाधिसे हुए क्रोधादिकभाव उनरूप परिणाम पाये जाते है; तथा शरीरका स्पर्श, रस, गन्ध, वर्ण स्वभाव है वह प्रगट है और स्थूल-कृषादिक होना तथा स्पर्शादिकका पलटना इत्यादि अनेक अवस्थायें होती हैं; - इन सबको अपना स्वरूप जानता है। ___ वहाँ ज्ञान-दर्शनकी प्रवृत्ति इन्द्रिय-मनके द्वारा होती है, इसलिये यह मानता है कि ये त्वचा, जीभ, नासिका, नेत्र, कान, मन मेरे अंग हैं। इनके द्वारा मैं देखता-जानता हूँ; ऐसी मान्यतासे इन्द्रियोंमें प्रीति पायी जाती है। ___ तथा मोहके आवेशसे उन इन्द्रियों के द्वारा विषय ग्रहण करने की इच्छा होती है। और उन विषयोंका ग्रहण होनेपर उस इच्छाके मिटनेसे निराकुल होता है तब आनन्द मानता है। जैसे कुत्ता हड्डी चबाता है, उससे अपना लोहू निकले उसका स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह हड्डियोंका स्वाद है। उसी प्रकार यह जीव विषयोंको जानता है, उससे अपना ज्ञान प्रवर्तता है, उस का स्वाद लेकर ऐसा मानता है कि यह विषयका स्वाद है सो विषयमें तो स्वाद है नहीं। स्वयं ही इच्छा की थी, उसे स्वयं ही जानकर स्वयं ही आनन्द मान लिया परन्तु मैं अनादि-अनन्त ज्ञानस्वरूप आत्मा हूँ - ऐसा Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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