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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पहला अधिकार] [७ परिणामका कारण हैं; सो ऐसे परिणामोंसे अपने घातक घातिकर्मकी हीनता होनेसे सहज ही वीतराग-विशेषज्ञान प्रगट होता है। जितने अंशोंमें वह हीन हो उतने अंशोंमें यह प्रगट होता है। -इस प्रकार अरहंतादिक द्वारा अपना प्रयोजन सिद्ध होता है। अथवा अरहंतादिके आकारका अवलोकन करना या स्वरूप विचार करना या वचन सुनना या निकटवर्ती होना या उनके अनुसार प्रवर्तन करना - इत्यादि कार्य तत्काल ही निमित्तभूत होकर रागादिकको हीन करते हैं, जीव-अजीवादिकके विशेष ज्ञानको उत्पन्न करते हैं। - इसलिये ऐसे भी अरहंतादिक द्वारा वीतराग-विशेषज्ञानरूप प्रयोजन की सिद्धि होती है। यहाँ कोई कहे कि इनके द्वारा ऐसे प्रयोजनकी तो सिद्धि इस प्रकार होती है, परन्तु जिससे इन्द्रियजनित सुख उत्पन्न हो तथा दुःखका विनाश हो – ऐसे भी प्रयोजन की सिद्धि इनके द्वारा होती है या नहीं ? उसका समाधान : ___ जो अरहंतादिके प्रति स्तवनादिरूप विशुद्ध परिणाम होते हैं उनसे अघातिया कर्मों की साता आदि पुण्यप्रकृतियों का बन्ध होता है; और यदि वे परिणाम तीव्र हों तो पूर्वकाल में जो असाता आदि पापप्रकृतियोंका बन्ध हुआ था उन्हें भी मन्द करता है अथवा नष्ट करके पण्यप्रकृतिरूप परिणमित करता है; और उस पुण्यका उदय होने पर स्वयमेव इन्द्रियसुखका कारणभूत सामग्री प्राप्त होती है तथा पापका उदय दूर होने पर स्वयमेव दुःखकी कारणभूत सामग्री दूर हो जाती है। - इस प्रकार इस प्रयोजनकी भी सिद्धि उनके द्वारा होती है। अथवा जिनशासनके भक्त देवादिक हैं वे उस भक्त पुरुषको अनेक इन्द्रियसुख की कारणभूत सामग्रियोंका संयोग कराते हैं और दुःखकी कारणभूत सामग्रियोंको दूर करते हैं। - इस प्रकार भी इस प्रयोजनकी सिद्धि उन अरहंतादिक द्वारा होती है। परन्तु इस प्रयोजन से कुछ भी अपना हित नही होता; क्योंकि यह आत्मा कषायभावोंसे बाह्य सामग्रियों में इष्टअनिष्टपना मानकर स्वयं ही सुख-दुःखकी कल्पना करता है। कषाय के बिना बाह्य सामग्री कुछ सुखदुःखकी दाता नहीं है। तथा कषाय है सो सर्व आकुलतामय है, इसलिये इन्द्रियजनित सुखकी इच्छा करना और दुःखसे डरना यह भ्रम है। पुनश्च , इस प्रयोजनके हेतु अरहंतादिक की भक्ति करनेसे भी तीव्र कषाय होनेके कारण पाप बंध ही होता है, इसलिये अपनेको इस प्रयोजन का अर्थी होना योग्य नहीं है। अरहंतादिक की भक्ति करनेसे ऐसे प्रयोजन तो स्वयमेव ही सिद्ध होते हैं। इसप्रकार अरहंतादिक परम इष्ट मानने योग्य हैं। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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