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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates पहला अधिकार] कार्य करते हुए भी उपाध्याय ही नाम पाते हैं तथा जो पदवीधारक नहीं हैं वे सर्व मुनि साधुसंज्ञाके धारक जानना। यहाँ ऐसा नियम नहीं है कि – पंचाचारोंसे आचार्यपद होता है, पठन-पाठनसे उपाध्यायपद होता है, मूलगुणोंके साधनेसे साधुपद होता है; क्योंकि ये क्रियाएँ तो सर्व मुनियोंके साधारण हैं, परन्तु शब्दनयसे उनका अक्षरार्थ वैसे किया जाता है। समभिरूढ़नय से पदवीकी अपेक्षा ही आचार्यादिक नाम जानना। जिसप्रकार शब्दनयसे जो गमन करे उसे गाय कहते हैं, सो गमन तो मनुष्यादिक भी करते हैं; परन्तु समभिरूढ़नयसे पर्याय-अपेक्षा नाम है। उसही प्रकार यहाँ समझना। यहाँ सिद्धोंसे पहले अरहंतोंको नमस्कार किया सो क्या कारण ? ऐसा संदेह उत्पन्न होता है। उसका समाधान यह है :- नमस्कार करते हैं सो अपना प्रयोजन सधनेकी अपेक्षा से करते हैं; सो अरहंतोंसे उपदेशादिकका प्रयोजन विशेष सिद्ध होता है, इसलिये पहले नमस्कार किया है। इसप्रकार अरहंतादिकका स्वरूप चिंतवन किया, क्योंकि स्वरूप चिंतवन करनेसे विशेष कार्यसिद्धि होती है। पुनश्च , इन अरहंतादिकको पँचपरमेष्टी कहते हैं; क्योंकि जो सर्वोत्कृष्ट इष्ट हो उसका नाम परमेष्ट है। पंच जो परमेष्ट उनका समाहार-समुदाय उसका नाम पंचपरमेष्टी जानना। पुनश्च – ऋषभ, अजित, संभव, अभिनन्दन, सुमति, पद्मप्रभ , सुपार्श्व, चन्द्रप्रभ , पुष्पदंत, शीतल, श्रेयांस, वासुपूज्य, विमल, अनन्त, धर्म, शांति, कुन्थु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व, वर्द्धमान नामके धारक चौबीस तिर्थंकर इस भरतक्षेत्रमें वर्तमान धर्मतीर्थके नायक हुए हैं; गर्भ , जन्म, तप, ज्ञान, निर्वाण कल्याणकोंमें इन्द्रादिकों द्वारा विशेष पूज्य होकर अब सिद्धालयमें विराजमान हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो। पुनश्च – सिमंधर, युगमंधर, बाहु, सुबाहु, संजातक, स्वयंप्रभ , वृषभानन , अनंतवीर्य, सूरप्रभ , विशालकीर्ति, वज्रधर, चन्द्रानन, चन्द्रबाहु, भुजंगम, ईश्वर, नेमिप्रभ, वीरसेन, महाभद्र, देवयश, अजितवीर्य नामके धारक बीस तीर्थंकर पंचमेरू सम्बन्धी विदेहक्षेत्रोंमें वर्तमानमें केवलज्ञान सहित विराजमान हैं; उन्हें हमारा नमस्कार हो। यद्यपि परमेष्टिपदमें इनका गर्भितपना है तथापि विद्यमानकालमें इनकी विशेषता जानकर अलग नमस्कार किया है। पुनश्च , त्रिलोकमें जो अकृत्रिम जिनबिम्ब विराजमान हैं, मध्यलोकमें विधिपूर्वक कृत्रिम जिनबिम्ब विराजमान हैं; जिनके दर्शनादिकसे एक धर्मोपदेशके बिना अन्य अपने Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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