SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 395
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates परमार्थवचनिका ] अब, निश्चय-व्यवहारका विवरण लिखते हैं : निश्चय तो अभेदरूप द्रव्य, व्यवहार द्रव्यके यथास्थित भाव । परन्तु विशेष इतना कि जितनेकाल संसारावस्था उतनेकाल व्यवहार कहा जाता है, सिद्ध व्यवहारातीत कहे जाते हैं, क्योंकि संसार व्यवहार एकरूप बतलाया है । संसारी सो व्यवहारी, व्यवहारी सो संसारी । अब, तीन अवस्थाओंका विवरण लिखते हैं : [ ३५१ जितने काल मिथ्यात्व अवस्था, उतने काल अशुद्ध निश्चयात्मक द्रव्य अशुद्धव्यवहारी । सम्यग्दृष्टि होते ही चतुर्थ गुणस्थानसे बारहवें गुणस्थानक पर्यंत मिश्रनिश्चयात्मक द्रव्य मिश्रव्यवहारी। केवलज्ञानी शुद्धनिश्चयात्मक शुद्धव्यवहारी । अब, निश्चय तो द्रव्यका स्वरूप, व्यवहार संसारावस्थित भाव, उसका विवरण कहते है : मिथ्यादृष्टि जीव अपना स्वरूप नहीं जानता, इसलिये परस्वरूपमें मग्न होकर कार्य मानता है; वह कार्य करता हुआ अशुद्ध व्यवहारी कहा जाता है। सम्यग्दृष्टि अपने स्वरूपको परोक्ष प्रमाण द्वारा अनुभवता है; परसत्ता - परस्वरूप से अपना कार्य न मानता हुआ योगद्वार से अपने स्वरूपके ध्यान- विचाररूप क्रिया करता है, वह कार्य करते हुए मिश्रव्यवहारी कहा जाता 1 केवलज्ञानी यथाख्यातचारित्रके बलसे शुद्धात्मस्वरूपका रमणशील है इसलिये शुद्धव्यवहारी कहा जाता है। योगारूढ़ अवस्था विद्यमान है इसलिये व्यवहारी नाम कहते हैं। शुद्धव्यवहारी सरहद तेरहवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थान पर्यंत जानना। असिद्धत्वपरिणमनत्वात् व्यवहारः । अब, तीनों व्यवहारका स्वरूप कहते हैं : अशुद्धव्यवहार शुभाशुभाचाररूप, शुद्धशुद्धव्यवहार शुभोपयोगमिश्रित स्वरूपाचरणरूप, शुद्धव्यवहार शुद्धस्वरूपाचरणरूप। परन्तु विशेष इनका इतना कि कोई कहे कि शुद्धस्वरूपाचरणात्म तो सिद्धमें भी विद्यमान है, वहाँ भी व्यवहार संज्ञा कहना चाहिये। परन्तु ऐसा नहीं है, क्योंकि संसारीअवस्थापर्यन्त व्यवहार कहा जाता है । संसारावस्थाके मिटने पर व्यवहार भी मिटा कहा जाता है। यहाँ यह स्थापना की है। इसलिये सिद्ध व्यवहारातीत कहे जाते हैं । इति व्यवहार विचार समाप्त । Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy