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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates रहस्यपूर्ण चिट्ठी] [३४७ अथवा जो प्रत्यक्षकी ही भाँति हो उसे भी प्रत्यक्ष कहते हैं। जैसे लोकमें कहते हैं कि " हमने स्वप्नमें अथवा ध्यानमें अमुक पुरुषको देखा"; वहाँ कुछ प्रत्यक्ष देखा नहीं है, परन्तु प्रत्यक्षकी ही भाँति प्रत्यक्षवत् यथार्थ देखा इसलिये उसे प्रत्यक्ष कहा जाता है। उसी प्रकार अनुभव में आत्मा प्रत्यक्ष की भाँति यथार्थ प्रतिभासित होता है, इसलिये इस न्यान से आत्मा का भी प्रत्यक्ष जानना होता है - ऐसा कहें तो दोष नहीं है। कथन तो अनेक प्रकार से है, वह सर्व आगम-अध्यात्म शास्त्रोंसे जैसे विरोध न हो वैसे विवक्षाभेदसे कथन जानना। यहाँ प्रश्न :- ऐसा अनुभव कौन गुणस्थान में होता है ? उसका समाधान :- चौथेही से होता है, परन्तु चौथेमें तो बहुत कालके अन्तरालसे होता है और ऊपर के गुणस्थानोंमें शीघ्र-शीघ्र होता है। फिर यहाँ प्रश्न :- अनुभव तो निर्विकल्प है, वहाँ ऊपरके और नीचेके गुणस्थानों में भेद क्या ? उसका समाधान :- परिणामोंकी मग्नतामें विशेष है। जैसे दो पुरुष नाम लेते हैं और दोनोंही के परिणाम नाम में हैं; वहाँ एक को तो मग्नता विशेष है और एक को थोड़ी है - उसी प्रकार जानना। फिर प्रश्न :- यदि निर्विकल्प अनुभवमें कोई विकल्प नहीं है तो शुक्लध्यानका प्रथम भेद पृथकत्ववितर्कवीचार कहा, वहाँ ‘पृथकत्ववितर्क' - नाना प्रकारके श्रुतका 'वीचार' - अर्थ-व्यंजन-योगसंक्रमण - ऐसा क्यों कहा? समाधान :- कथन दो प्रकार है – एक स्थूलरूप है, एक सूक्ष्मरूप है। जैसे स्थूलता से तो छठवें ही गुणस्थानमें सम्पूर्ण ब्रह्मचर्य व्रत कहा और सूक्ष्मतासे नववें गुणस्थान तक मैथुन संज्ञा कही; उसी प्रकार यहाँ अनुभवमें निर्विकल्पता स्थूलरूप कहते हैं। तथा सूक्ष्मतासे पृथकत्ववितर्क वीचारादिक भेद व कषायादिक दसवें गुणस्थान तक कहे हैं। वहाँ अपने जाननेमें व अन्यके जाननेमें आये ऐसे भावका कथन स्थूल जानना तथा जो आप भी न जाने और केवली भगवान ही जानें - ऐसे भावका कथन सूक्ष्म जानना। चरणानुयोगादिकमें स्थूलकथन की मुख्यता है और करणानुयोग में सूक्ष्मकथन की मुख्यता है; ऐसा भेद अन्यत्र भी जानना। इसप्रकार निर्विकल्प अनुभव का स्वरूप जानना। तथा भाईजी, तुमने तीन दृष्टांत लिखे व दृष्टांतमें प्रश्न लिखा, सो दृष्टांत सर्वांग मिलता नहीं है। दृष्टांत है वह एक प्रयोजनको बतलाता है; सो यहाँ द्वितीयाका विधु Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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