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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates रहस्यपूर्ण चिट्ठी ] [ ३४५ प्रत्यक्षमन्यत् ” ( तत्त्वार्थसूत्र अ० १ सूत्र ११ – १२ ) ऐसा सूत्र का वचन है । तथा तर्कशास्त्रमें प्रत्यक्ष - परोक्षका ऐसा लक्षण कहा है “ स्पष्टप्रतिभासात्मकं प्रत्यक्षमस्पष्टं परोक्षं । " - जो ज्ञान अपने विषयको निर्मलतारूप स्पष्टतया भलीभाँति जाने सो प्रत्यक्ष और जो स्पष्ट भलीभाँति न जाने सो परोक्ष । वहाँ मतिज्ञान - श्रुतज्ञानके विषय तो बहुत हैं, परन्तु एक भी ज्ञेयको सम्पूर्ण नहीं जान सकता इसलिये परोक्ष कहे और अवधि - मन:पर्ययज्ञान के विषय थोड़े हैं तथापि अपने विषयको स्पष्ट भलीभाँति जानता है इसलिये एकदेश प्रत्यक्ष है और केवलज्ञान सर्व ज्ञेय को आपस्पष्ट जानता है इसलिये सर्वप्रत्यक्ष है। तथा प्रत्यक्षके दो भेद हैं :- एक परमार्थ प्रत्यक्ष, दूसरा सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष। वहाँ अवधि, मन:पर्यय और केवलज्ञान तो स्पष्ट प्रतिभासरूप हैं ही, इसलिये पारमार्थिक प्रत्यक्ष हैं। तथा नेत्रादिकसे वर्णादिकको जानते हैं वहाँ व्यवहारसे ऐसा कहते हैं — इसने वर्णादिक प्रत्यक्ष जाने', एकदेश निर्मलता भी पायी जाती है, इसलिये इनको सांव्यवहारिक प्रत्यक्ष कहते हैं; परन्तु यदि एक वस्तुमें अनेक मिश्र वर्ण वे नेत्र द्वारा भलीभाँति नहीं ग्रहण किये जाते हैं, इसलिये इसको परमार्थ - प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता है। — तथा परोक्ष प्रमाण के पाँच भेद हैं :- स्मृति, प्रत्यभिज्ञान, तर्क, अनुमान और आगम । वहाँ जो पूर्व काल जो वस्तु जानी थी उसे याद करके जानना, उसे स्मृति कहते हैं। दृष्टांत द्वारा वस्तु का निश्चय किया जाये उसे प्रत्यभिज्ञान कहते हैं । हेतुके विचार युक्त जो ज्ञान उसे तर्क कहते हैं । हेतु से साध्य वस्तुका जो ज्ञान उसे अनुमान कहते हैं। आगम से जो ज्ञान हो उसे आगम कहते हैं। ऐसे प्रत्यक्ष-परोक्ष प्रमाण के भेद कहे हैं। वहाँ इस स्वानुभनदशामें जो आत्मा को जाना जाता है सो श्रुतज्ञान द्वारा जाना जाता है। श्रुतज्ञान है वह मतिज्ञानपूर्वक ही है, वे मतिज्ञान - श्रुतज्ञान परोक्ष कहे हैं, इसलिये यहाँ आत्माका जानना प्रत्यक्ष नहीं । तथा अवधि - मन:पर्ययका विषय रूपीपदार्थ ही और केवलज्ञान छद्मस्थके है नहीं, इसलिये अनुभवमें अवधि - मन:पर्यय - केवल द्वारा आत्मा का जानना नहीं है। तथा यहाँ आत्मा को स्पष्ट भलीभाँति नहीं जानता है, इसलिये पारमार्थिक प्रत्यक्षपना तो सम्भव नहीं है। तथा जैसे नेत्रादिक से वर्णादिक जानते हैं वैसे एकदेश निर्मलता सहित भी आत्मा के असंख्यात प्रदेशादिक नहीं जानते हैं, इसलिये सांव्यवहारिक प्रत्यक्षपना भी सम्भव नहीं है। Please inform us of any errors on rajesh@AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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