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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३३८] [ मोक्षमार्गप्रकाशक यहाँ कोई कहे कि सम्यक्त्व से भ्रष्ट होकर मिथ्यात्व में आया हो उसे मिथ्यात्वसम्यक्त्व कहा जाये। परन्तु यह असत्य है, क्योंकि अभव्यके भी उसका सद्भाव पाया जाता है। तथा मिथ्यात्वसम्यक्त्व कहना ही अशुद्ध है। जैसे संयममार्गणामें असंयम कहा, भव्यमार्गणामें अभव्य कहा, उसी प्रकार सम्यक्त्वमार्गणामें मिथ्यात्व कहा। मिथ्यात्वको सम्यक्त्वका भेद नहीं जानना। सम्यक्त्व अपेक्षा विचार करनेपर कितने ही जीवोंके सम्यक्त्व का अभाव भासित हो, वहाँ मिथ्यात्व पाया जाता है - ऐसा अर्थ प्रगट करनेके अर्थ सम्यक्त्व मार्गणामें मिथ्यात्व कहा है। इसीप्रकार सासादन, मिश्र भी सम्यक्त्वके भेद नहीं हैं। सम्यक्त्वके भेद तीन ही हैं, ऐसा जानना। यहाँ कर्मके उपशमादिकसे उपशमादि सम्यक्त्व कहे, सो कर्मके उपशमादिक इसके करनेसे नहीं होते। यह तो तत्त्वश्रद्धान करनेका उद्यम करे, उसके निमित्तसे स्वयमेव कर्मके उपशमादि होते हैं, तब इसके तत्त्वश्रद्धान की प्राप्ति होती है - ऐसा जानना। ऐसे सम्यक्त्वके भेद जानना। इसप्रकार सम्यग्दर्शनका स्वरूप कहा। सम्यग्दर्शनके आठ अंग तथा सम्यग्दर्शनके आठ अंग कहे हैं :- निःशंकितत्व, निःकांक्षितत्व, निर्विचिकित्सत्व, अमूढ़दृष्टित्व, उपबृहण, स्थितिकरण, प्रभावना और वात्सल्य। वहाँ भयका अभाव अथवा तत्त्वोंमें संशयका अभाव सो निःशंकितत्व है। तथा परद्रव्यादिमें रागरूप वांछाका अभाव सो निःकांक्षितत्व है। तथा परद्रव्यादिमें द्वेषरूप ग्लानिका अभाव निर्विचिकित्सत्व है। तथा तत्त्वोंमें व देवादिकमें अन्यथा प्रतीतिरूप मोहका अभाव सो अमूढ़दृष्टित्व है। तथा आत्मधर्मका व जिनधर्मका बढ़ाना उसका नाम उपबृहण है, इसी अंगका नाम उपगूहन भी कहा जाता है; वहाँ धर्मात्मा जीवोंके दोष ढंकना - ऐसा उसका अर्थ जानना। तथा अपने स्वभावमें तथा जिनधर्ममें अपनेको व परको स्थापित करना सो स्थितिकरण है। तथा अपने स्वरूप की व जिनधर्मकी महिमा प्रगट करना सो प्रभावना है। तथा स्वरूपमें व जिनधर्म में व धर्मात्मा जीवोंमें अति प्रीतिभाव, सो वात्सल्य है। ऐसे यह आठ अंग जानना। जैसे मनुष्य शरीरके हस्तपादादिक अंग हैं, उसी प्रकार यह सम्यक्त्वके अंग हैं। यहाँ प्रश्न है कि कितने ही सम्यक्त्वी जीवोंके भी भय, इच्छा, ग्लानि आदि पाये जाते हैं, और कितने ही मिथ्यादृष्टियोंके नहीं पाये जाते; इसलिये निःशंकितादिक अंग सम्यक्त्वके कैसे कहते हो? Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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