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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नौवाँ अधिकार] [३३३ वहाँ सर्वत्र सम्यक्त्वका स्वरूप तत्त्वार्थश्रद्धान ही जानना। तथा सम्यक्त्वके तीन भेद किये हैं :- १-औपशमिक, २-क्षायोपशमिक, ३-क्षायिक। सो यह तीन भेद दर्शनमोहकी अपेक्षा किये हैं। वहाँ औपशमिक सम्यक्त्वके दो भेद हैं - प्रथमोपशमसम्यक्त्व और द्वितीयोपशमसम्यक्त्व। वहाँ मिथ्यादृष्टि गुणस्थानमें करण द्वारा दर्शनमोहका उपशम करके जो सम्यक्त्व उत्पन्न हो, उसे प्रथमोपशमसम्यक्त्व कहते हैं। हते हैं। ___ वहाँ इतना विशेष है - अनादि मिथ्यादृष्टि के तो एक मिथ्यात्वप्रकृति का ही उपशम होता है, क्योंकि इसके मिश्रमोहनीय और सम्यक्त्वमोहनीय की सत्ता है नहीं। जब जीव उपशमसम्यक्त्व को प्राप्त हो, वहाँ उस सम्यक्त्वके काल में मिथ्यात्वके परमाणुओंको मिश्रमोहनीयरूप और सम्यक्त्वमोहनीयरूप परिणमित करता है तब तीन प्रकृतियोंकी सत्ता होती है; इसलिये अनादि मिथ्यादृष्टि के एक मिथ्यात्वप्रकृतिकी सत्ता है, उसी का उपशम होता है। तथा सादि मिथ्यादृष्टि के किसी के तीन प्रकृतियोंकी सत्ता है, किसी के एक ही की सत्ता है। जिसके सम्यक्त्वकालमें तीन की सत्ता हुई थी वह सत्ता पायी जाये, उसके तीन की सत्ता है और जिसके मिश्रमोहनीय, सम्यक्त्वमोहनीयकी उद्वेलना हो गई हो, उनके परमाणु मिथ्यात्वरूप परिणमित हो गये हों, उसके एक मिथ्यात्व की सत्ता है; इसलिये सादि मिथ्यादृष्टिके तीन प्रकृतियोंका व एक प्रकृति का उपशम होता है। उपशम क्या ? सो कहते हैं :- अनिवृत्तिकरणमें किये अन्तरकरणविधानसे जो सम्यक्त्व के कालमें उदय आने योग्य निषेक थे, उनका तो अभाव किया, उनके परमाणु अन्यकालमें उदय आने योग्य निषेकरूप किये । तथा अनिवृत्तिकरणमें ही किये उपशमविधान से जो उस काल के पश्चात् उदय आने योग्य निषेक थे वे उदीरणारूप होकर इस काल में उदय न आसकें ऐसे किये। इसप्रकार जहाँ सत्ता तो पायी जाये और उदय न पाया जाये – उसका नाम उपशम है। यह मिथ्यायत्व से हुआ प्रथमोपशमसम्यक्त्व है, सो चतुर्थादि सप्तम गुणस्थानपर्यन्त पाया जाता है। तथा उपशमश्रेणी के सन्मुख होनेपर सप्तमगुणस्थानमें क्षयोपशमसम्यक्त्वसे जो उपशम सम्यक्त्व हो, उसका नाम द्वितीयोपशमसम्यक्त्व है। यहाँ करण द्वारा तीन ही प्रकृतियोंका उपशम होता है, क्योंकि इसके तीन ही की सत्ता पायी जाती है। यहाँ भी अन्तरकरण विधान से व उपशम विधान से उनके उदयका अभाव करता है वही उपशम है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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