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________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates ३२६] [मोक्षमार्गप्रकाशक समाधान :- सप्ततत्त्वों के श्रद्धानमें अरहन्तादिकका श्रद्धान गर्भित है; क्योंकि तत्त्वश्रद्धान में मोक्षतत्त्वको सर्वोत्कृष्ट मानते हैं, वह मोक्षतत्त्व तो अरहन्त-सिद्धका लक्षण है। जो लक्षणको उत्कृष्ट माने वह उसके लक्ष्यको उत्कृष्ट माने ही माने; इसलिये उनको भी सर्वोत्कृष्ट माना, औरको नहीं माना; वही देव का श्रद्धान हुआ। तथा मोक्षके कारण संवरनिर्जरा हैं, इसलिये इनको भी उत्कृष्ट मानता है; और संवर-निर्जरा के धारक मुख्यतः मुनि हैं, इसलिये मुनि को उत्तम माना, औरोंको नहीं माना; वही गुरुका श्रद्धान हुआ। तथा रागादिक रहित भाव का नाम अहिंसा है, उसी को उपादेय मानते हैं, औरोंको नहीं मानते; वही धर्मका श्रद्धान हुआ। इसप्रकार तत्त्वश्रद्धान में गर्भित अरहन्तदेवादिकका श्रद्धान होता है। अथवा जिस निमित्तसे इसके तत्त्वार्थश्रद्धान होता है, उस निमित्तसे अरहन्तदेवादिकका भी श्रद्धान होता है। इसलिये सम्यक्त्व में देवादिकके श्रद्धानका नियम है। फिर प्रश्न है कि कितने ही जीव अरहन्तादिकका श्रद्धान करते हैं, उनके गुण पहिचानते हैं और उनके तत्त्वश्रद्धानरूप सम्यक्त्व नहीं होता; इसलिये जिसके सच्चा अरहन्तादिकका श्रद्धान हो, उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही होता है - ऐसा नियम सम्भव नहीं समाधान :- तत्त्वश्रद्धान बिना अरहन्तादिकके छियालीस आदि गुण जानता है वह पर्यायाश्रित गुण जानता है; परन्तु भिन्न-भिन्न जीव-पुद्गलमें जिसप्रकार सम्भव है उस प्रकार यथार्थ नहीं पहिचानता, इसलिये सच्चा श्रद्धान भी नहीं होता; क्योंकि जीव-अजीव जाति पहिचाने बिना अरहन्तादिकके आत्माश्रित गुणोंको व शरीराश्रित गुणोंको भिन्न-भिन्न नहीं जानता। यदि जाने तो अपनी आत्माको परद्रव्यसे भिन्न कैसे न माने ? इसलिये प्रवचनसारमें ऐसा कहा है : जो जाणदि अरहंतं दव्यत्तगुणत्तपज्जयत्तेहिं । सो जाणदि अप्पाणं मोहो खलु जादि तस्स लयं ।। ८०।। इसका अर्थ यह है :- जो अरहन्तको द्रव्यत्व, गुणत्व, पर्यायत्व से जानता है वह आत्मा को जानता है; उसका मोह विलयको प्राप्त होता है। इसलिये जिसके जीवादि तत्त्वोंका श्रद्धान नहीं है, उसके अरहन्तादिकका भी सच्चा श्रद्धान नहीं है। तथा मोक्षादिक तत्त्वके श्रद्धान बिना अरहन्तादिकका महात्म्य यथार्थ नहीं जानता। लौकिक अतिशयादिसे अरहन्तका, तपश्चरणादिसे गुरुका और परजीवोंकी अहिंसादिसे धर्मकी महिमा जानता है, सो यह पराश्रितभाव हैं। तथा आत्माश्रित भावोंसे अरहन्तादिकका स्वरूप तत्त्वश्रद्धान होनेपर ही जाना जाता है; इसलिये जिसके सच्चा अरहन्तादिकका श्रद्धान हो उसके तत्त्वश्रद्धान होता ही होता है - ऐसा नियम जानना। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
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