SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 361
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Version 002: remember to check http://www.AtmaDharma.com for updates नौवाँ अधिकार] [३१७ तब मोक्षमार्गमें कैसे प्रवर्ते? इसलिये इन दो जातियोंका श्रद्धान न होने पर मोक्ष नहीं होता। इस प्रकार यह दो सामान्य तत्त्व तो अवश्य श्रद्धान करने योग्य कहे हैं। तथा आस्रवादि पाँच कहे, वे जीव-पुद्गल की पर्याय हैं; इसलिये यह विशेषरूप तत्त्व हैं; सो इन पाँच पर्यायोंको जानने से मोक्षका उपाय करने का श्रद्धान होता है। वहाँ मोक्षको पहिचानेतो उसे हित मान कर उसका उपयोग करे; इसलिये मोक्षका श्रद्धान करना। तथा मोक्षका उपाय संवर-निर्जरा है; सो इनको पहिचानेतो जैसे संवर-निर्जराहो वैसे प्रवर्ते; इसलिये संवर-निर्जराका श्रद्धान करना। तथा संवर-निर्जरा तो अभावलक्षण सहित है; इसलिये जिनका अभाव करना है उनको पहिचानना चाहिये। जैसे - क्रोधका अभाव होने पर क्षमा होती है; सो क्रोधको पहिचाने तो उसका अभाव करके क्षमारूप प्रवर्तन करे। उसी प्रकार आस्रवका अभाव होने पर संवर होता है और बन्धका एकदेश अभाव होने पर निर्जरा होती है; सो आस्रव बन्धको पहिचाने तो उनका नाश करके संवर-निर्जरारूप प्रवर्तन करे; इसलिये आस्रव-बन्धका श्रद्धान करना। इसप्रकार इन पाँच पर्यायोंका श्रद्धान होनेपर ही मोक्षमार्ग होता है, इनको न पहिचाने तो मोक्षकी पहिचान बिना उसका उपाय किसलिये करे ? संवर-निर्जराकी पहिचान बिना उनमें कैसे प्रवर्तन करे? आस्रव-बन्धकी पहिचान बिना उनका नाश कैसे करे ? - इसप्रकार इन पाँच पर्यायोंका श्रद्धान न होने पर मोक्षमार्ग नहीं होता। इसप्रकार यद्यपि तत्त्वार्थ अनन्त हैं, उनका सामान्य विशेषसे अनेक प्रकार प्ररूपण हो; परन्तु यहाँ एक मोक्षका प्रयोजन है; इसलिये दो तो जाति अपेक्षा सामान्यतत्त्व और पाँच पर्यायरूप विशेषतत्त्व मिला कर सात ही तत्त्व कहे। इनके यथार्थ श्रद्धानके आधीन मोक्षमार्ग है। इनके सिवा औरोंका श्रद्धान हो या न हो या अन्यथा श्रद्धान हो; किसी के आधीन मोक्षमार्ग नहीं है ऐसा जानना। तथा कहीं पुण्य-पाप सहित नवपदार्थ कहे हैं; सो पुण्य-पाप आस्रवादिकके ही विशेष हैं. इसलिये साततत्त्वोंमें गर्भित हए। अथवा पुण्य-पापका श्रद्धान होनेपर पुण्यको मोक्षमार्ग न माने, या स्वच्छन्दी होकर पापरूप न प्रवर्ते; इसलिये मोक्षमार्ग में इनका श्रद्धान भी उपकारी जानकर दो तत्त्व विशेष के विशेष मिला कर नवपदार्थ कहे। तथा समयसारादिमें इनको नवतत्त्व भी कहा है। Please inform us of any errors on rajesh@ AtmaDharma.com
SR No.008265
Book TitleMoksh marg prakashak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTodarmal Pandit
PublisherKundkund Kahan Digambar Jain Trust
Publication Year1983
Total Pages403
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Religion
File Size2 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy